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जन-मंगल धर्म के चार चरण
यह भ्रम भी दूर कर लेना चाहिए कि दूध की अपेक्षा अण्डा अधिक पौष्टिक होता है। शाकाहार वह कभी हो ही नहीं सकता, यद्यपि किसी को यह विश्वास हो तब भी उसे अण्डा सेवन के दोषों से परिचित होकर स्वस्थ जीवन के हित इसका परित्याग ही कर देना चाहिए। अण्डे हानि ही हानि करते हैं-लाभ रंच मात्र भी नहीं यही हृदयंगम कर इस अभिशाप क्षेत्र से बाहर निकल आने में ही विवेकशीलता है। दूध, दालें, सोयाबीन, मूँगफली जैसी साधारण शाकाहारी खाय सामग्रियां अण्डों की अपेक्षा अधिक पोष्टिकतत्वयुक्त हैं, वे अधिक ऊर्जा देती हैं और स्वास्थ्यवर्द्धक है। तथाकथित शाकाहारी अण्डों के इस कंटकाकीर्ण जंगल से निकल कर शुद्ध शाकाहार के सुरम्य उद्यान का आनन्द लेना प्रबुद्धतापूर्ण
सुखी जीवन का आधार : व्यसन मुक्ति
सुखी जीवन का मेरुदण्ड है-व्यसन मुक्ति । व्यसनमुक्ति का आधार है श्रम सम्यक् श्रम साधना से जीवन में सद्संस्कारों का प्रवर्तन होता है। इससे जीवन में स्वावलम्बन का संचार होता है। स्वावलम्बी तथा श्रमी सदा सन्तोषी और सुखी जीवन जीता है।
श्रम के अभाव में जीवन में दुराचरण के द्वार खुल जाते हैं। जब जीवन दुराचारी हो जाता है तब प्राणी इन्द्रियों के वशीभूत हो जाता है। प्राण का स्वभाव है चैतन्य । चेतना जब इन्द्रियों को अधीन काम करती है तब भोगचर्या प्रारम्भ हो जाती है और जब इन्द्रियाँ चेतना के अधीन होकर सक्रिय होते हैं तब योग का उदय होता है। भोगवाद दुराचार को आमंत्रित करता है जबकि योग से जीवन में सदाचार को संचार हो उठता है।
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होगा। धर्माचारियों और अहिंसाव्रतधारियों को तो इस फेर में पड़ना ही नहीं चाहिए। अण्डा अन्ततः अण्डा ही है। किसी के यह कह देने से कि कुछ अण्डे शाकाहारी भी होते हैं-अण्डों की प्रकृति में कुछ अन्तर नहीं आ जाता। अण्डे की बीभत्स भूमिका इससे कम नहीं हो जाती, उसकी सामिषता ज्यों की त्यों बनी रहती है। मात्र भ्रम के वशीभूत होकर, स्वाद के लोभ में पड़कर, आधुनिकता के आडम्बर में ग्रस्त होकर मानवीयता और धर्मशीलता की, शाश्वत जीवन मूल्यों की बलि देना ठीक नहीं होगा। दृढ़चित्तता के साथ मन ही मन अहिंसा पालन की धारणा कीजिए-अण्डे को शाकाहारी मानना छोड़िए आगे का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होता चला जाएगा।
श्रम जब शरीर के साथ किया जाता है तब मजूरी या मजदूरी का जन्म होता है। श्रम जब मास्तिष्क के साथ सक्रिय होता है तब उपजती है कारीगरी। और जब श्रम हृदय के साथ सम्पृक्त होता है। तब कला का प्रवर्तन होता है। जीवन जीना वस्तुतः एक कला है। मजूरी अथवा कारीगरी व्यसन को प्रायः निमंत्रण देती है। इन्द्रियों का विषयासक्त, आदी होना वस्तुतः कहलाता है- व्यसन । बुरी आदत की लत का नाम है व्यसन ।
संसार की जितनी धार्मिक मान्यताएँ हैं सभी ने व्यसन मुक्ति की चर्चा की है। सभी स्वीकारते हैं कि व्यसन मानवीय गुणों के गौरव को अन्ततः रौख में मिला देते हैं। जैनाचायों ने भी व्यसनों से पृथक रहने का निदेश दिया है। इनके अनुसार यहाँ व्यसनों के प्रकार बतलाते हुए उन्हें सप्त भागों में विभक्त किया गया है। यथा
-विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया (एम. ए., पी.एच. डी., डी. लिट् (अलीगढ़)) "धूतं च मासं च सुरा च वेश्या पापर्द्धिचौर्य परदार सेवा । एतानि सप्त व्यसनानि लोके घोरातिघोरं नरकं नयन्ति ॥
अर्थात् जुआ, माँसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, तथा परस्त्री गमन से ग्रसित होकर प्राणी लोक में पतित होता है, मरणान्त उसे नरक में ले जाता जाता है। संसार में जितने अन्य अनेक व्यसन हैं वे सभी इन सप्तव्यसनों में प्रायः अन्तर्मुक्त हो जाता है।
श्रम विहीन जीवनचर्या में जब अकूत सम्पत्ति की कामना की जाती है तब प्रायः धूत-क्रीड़ा अथवा जुआ व्यसन का जन्म होता है। आरम्भ में चौपड़, पासा तथा शतरंज जैसे व्यसन मुख्यतः उल्लिखित हैं। कालान्तर में ताश, सट्टा, फीचर, लाटरी, मटका तथा रेस आदि इसी व्यसन के आधुनिक रूप है। घूत-क्रीड़ा से जो भी धनागम होता है, वह बरसाती नदी की भाँति अन्ततः अपना जल भी बहाकर ले जाता है। व्यसनी अन्य व्यसनों की ओर उत्तरोत्तर उन्मुख होता है।
वासना बहुलता के लिए प्राणी प्रायः उतेजक पदार्थों का सेवन करता है। वह मांसाहारी हो जाता है। विचार करें मनुष्य प्रकृति से शाकाहारी है। जिसका आहार भ्रष्ट हो जाता है, वह कभी उत्कृष्ट नहीं हो पाता। प्रसिद्ध शरीर शास्त्री डॉ. हेग के अनुसार शाकाहार से शक्ति समुत्पन्न होती है जबकि मांसाहार से उत्तेजना उत्पन्न होती है। मांसाहारी प्रथमतः शक्ति का अनुभव करता है पर वह शीघ्र ही थक जाता है। शाकाहारी की शक्ति और साहस स्थायी होता है। प्रत्यक्षरूप से परखा जा सकता है कि मांसाहारी चिड़चिड़े, क्रोधी, निराशावादी और असहिष्णु होते हैं क्योंकि शाकाहार में ही केवल कैलसियम और कार्बोहाइड्रेट्स का समावेश रहता है, फलस्वरूप