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नई पीढ़ी के रचनाधर्मी साहित्यकारों के मनोबल को ऊंचा करने के लिए वे कहते हैं कि सृष्टि में ऐसी कौन-सी वस्तु है जिसमें दोष नहीं है। हमें तो केवल काव्यकार की भावना को दृष्टिगत करना चाहिए
अर्थात् दोष कहां नहीं है? दोष आ जाए तो इससे क्या कुछ धर्म
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प्राचीन भारत में धर्म व दर्शन की जटिलताओं के समाधान के लिए संस्कृत भाषा का अवलम्ब लिया जाता था । भगवान् महावीर स्वामी ने अपनी धर्मदेशना में अर्धमागधी (लोक भाषा) का आश्रय लेकर धर्म के स्वरूप को सभी के लिए सुलभ कर दिया। भगवान् महावीर स्वामी के परवर्ती जैनाचार्यों ने संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी अपभ्रंश एवं आंचलिक भाषाओं में प्रचुर मात्रा में साहित्य का प्रणयन किया है । कन्नड़, तमिल इत्यादि अनेक प्रादेशिक भाषाओं का प्राचीन साहित्य तो वास्तव में जैनाचायों की अभूतपूर्व देन है। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज का भी भाषा के संबंध में उदार दृष्टिकोण रहा है। उनका जन्म कन्नड़ एवं मराठी के सन्धिस्थल जिला बेलगाम में हुआ है अतः कन्नड़ एवं मराठी दोनों ही उनकी मातृभाषाएं हैं। एक धर्मप्रभावक आचार्य के रूप में उन्होंने अंग्रेजी, तमिल संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, बंगला इत्यादि में भी दक्षता प्राप्त की है। उनकी धर्मप्रभावना लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष में हुई है। अतः भारतीय भाषाओं की प्रादेशिक बोलियों, ग्रामीण भाषा इत्यादि से भी उनका परिचय हुआ है । बहुभाषाविज्ञ आचार्य श्री ने भाषा संबंधी अपनी मान्यता को इस प्रकार प्रकट किया है—
"अपनी मातृभाषा सीखने के साथ द्वितीय भाषा के रूप में भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत का अध्ययन करना भी आवश्यक है। संस्कृत भाषा में साहित्य, न्याय, ज्योतिष, वैद्यक, नीति, सिद्धान्त, आचार आदि अनेक विषयों के अच्छे-अच्छे सुन्दर ग्रंथ विद्यमान हैं, जिनको पढ़ने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान होना अति आवश्यक है। जर्मनी, रूस, जापान आदि विदेशों के विश्वविद्यालयों में संस्कृत भाषा पढ़ाई जाती है, तब हमारे विद्यार्थी संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ रहें, यह बड़ी कमी और लज्जा की बात है ।" ( उपदेशसार संग्रह, भाग २, पृष्ठ ३०१ )
'अपराजितेश्वर शतक' की समाप्ति पर अपनी विशेष टिप्पणी देते हुए आचार्य श्री ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्रदान किया
है । इस राष्ट्रभाषा हिन्दी के वे सरल और सुबोध स्वरूप के पक्षधर रहे हैं। उन्होंने अपने अनेक ग्रंथों की भूमिका में भी इस आशय के भाव प्रकट किए हैं। यह विचित्र संयोग ही है कि 'अपराजितेश्वर शतक' के हिन्दी अनुवाद का समापन कार्य राष्ट्रनायक पं० जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस अर्थात् १४-११-१६५५ को सम्पन्न हुआ था । राष्ट्रभाषा हिन्दी के सरल स्वरूप के सम्बन्ध में पं० नेहरू के विचार भी कुछ इसी प्रकार के थे । वस्तुतः आचार्य श्री भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम मानते हैं। वे किसी भाषा विशेष से बंधे हुए नहीं हैं। उनका लक्ष्य तो धर्ममयी वाणी का प्रचार-प्रसार रहा है। अतः उन्होंने अपनी अनूदित कृतियों में विद्वानों का सहयोग लेकर अनेक अंशों का अंग्रेजी में भी पद्यानुवाद कराया है। आचार्य श्री के शब्दों में, "अंगरेजी अनुवाद केवल इस अभिप्राय से किया गया है कि अन्य देशवासी भी जो कन्नड़ी हिन्दी भाषा से अनभिज्ञ हैं उन्हें भी इस भारतवर्ष के महान् चक्रवर्ती तथा जैन शासन का पूर्ण परिचय मिल जाए और उनके भाव भी इस अहिंसा धर्म में लगें ।" ( भरतेश वैभव, भूमिका)
बोलिगल कवि हूदो निर्मल वो।
विनोलकर संमिति शब्द
लोग्ने सुरुयेगे। बंदरे धर्ममावदे ।। (भरतेश वैभव भोग विजय भाग १, ०४) क्या चन्द्रमा में कलंक नहीं है? तो क्या इससे चांदनी कलत होती है? नहीं, कदापि नहीं। शब्दगत में अन्तर आ सकता है ?
आचार्य श्री द्वारा रचित एवं अनूदित साहित्य का अनुशीलन करने के लिए सुविधा की दृष्टि से इसे निम्नलिखित शीर्षकों विभाजित किया जा सकता है—पौराणिक साहित्य, दार्शनिक साहित्य, भक्ति साहित्य उपदेशात्मक उद्बोधक साहित्य अन्य विधाओं का साहित्य प्रेरित साहित्य
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(१) पौराणिक साहित्य
जैनागम के बारहवें तांग दृष्टिवाद के भेदों में प्रथमानुयोग का उल्लेख मिलता है। प्रथमानुयोग में
महापुरुषों के जीवन
चरित्र का विस्तार से विवेचन किया गया है। त्रेसठ शलाका पुरुषों की सूची का क्रम शास्त्रसार समुच्चय के अनुसार इस प्रकार है२४ र १२ वर्ती, बलदेव वासुदेव ९ प्रतिवासुदेव।
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(अ) तीर्थंकर - आदिनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ प्रभु पुष्पदन्त शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, बानुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी ।
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