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प्रवचन
१. साधना का सार तत्व - समता
मध्याह्न का समय था । चिलचिलाती धूप चारों ओर फैली हुई थी । जमीन आग उगल रही थी । गर्म-गर्म हवा चल रही थी । एक श्रेष्ठी के द्वार पर एक भिक्षुक जाकर खड़ा हुआ । भिक्षुक की शाम वेशभूषा को देखकर श्र ेष्ठी विस्मय-विमुग्ध मुद्रा में बोला- आपने ये श्याम वस्त्र क्यों धारण किये हैं ? श्याम वस्त्र शोक के प्रतीक होते हैं इसी लिए राजस्थान के किन्हीं - किन्हीं प्रान्तों में विधवा बहनें ये वस्त्र धारण करती । क्या आपका भी कोई स्नेही मर गया ? जिस कारण आपने यह अनोखी वेशभूषा धारण की है ।
संन्यासी ने मधुर मुस्कान बिखेरते हुए कहा—श्रेष्ठी प्रवर ! मेरे अत्यन्त स्नेही मित्रों की मृत्यु हो गयी है, जिनके साथ मैं दीर्घकाल तक रहा।
श्रेष्ठी ने साश्चर्य पूछा- आपके किन मित्रों 'मृत्यु हो गयी ? आप तो सन्त हैं । सन्त के तो संसार के सभी प्राणी मित्र होते हैं । वे विशेष मित्र कौन थे आपके ?
संन्यासी ने गम्भीर मुद्रा में कहा- मेरे चिर साथी थे-- क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष | जिनके साथ में अनन्त काल तक रहा । प्रत्येक जीवयोनि में वे मित्र मेरे साथ रहे । पर अब उनकी मृत्यु हो जाने से मैंने ये श्याम वस्त्र धारण किये हैं । ये श्याम वस्त्र उनके वियोग के प्रतीक हैं।
सेठ ने सुना, उसे आश्चर्य हुआ कि संन्यासी अपनी प्रशंसा कर रहा है । यह अतिशयोक्तिपूर्ण बात है । काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ की मृत्यु होना कभी सम्भव नहीं । जब तक परीक्षण प्रस्तर पर इसे कसा न जाये, तब तक कैसे पता लग सकता है कि काम, क्रोध, मद, मोह की मृत्यु हो गई है । श्रेष्ठी ने क्रोध की मुद्रा बनाते हुए कहा - अरे सप्तम खण्ड : विचार मन्थन
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भिखमंगे ! तू इस समय कहाँ से चला आया ? हट्टेकट्टे हो तो भी तुम्हें भीख माँगते हुए शर्म नहीं आती ? चले जाओ यहाँ से ।
सेठ की फटकार को सुनकर संन्यासी ने शान्तमुद्रा में देहरी से बाहर कदम बढ़ाया कि श्रेष्ठी ने पुनः आवाज दी । बाबा कहाँ जाते हो ? आओ बैठो, कुछ बात करेंगे । संन्यासी प्रसन्न मुद्रा में लौट आया और ज्यों ही लौटकर वह आया त्यों ही सेठ ने कहा- निर्लज्ज ! शर्म नहीं आती तुझे ? पुनः चला आया, चला जा यहाँ से । संन्यासी पुनः उलटे पैरों लौट गया। दो कदम आगे बढ़ा ही था कि पुनः सेठ ने आवाज दी। अरे! बिना भिक्षा लिये कहाँ जा रहा है ? आ, भिक्षा लेकर के जाना । संन्यासी पुनः चला आया । सेठ ने अपने नौकर को आवाज दी । यह भिखमंगा मान नहीं रहा है । सुबह से ही इसने मेरा मूड बिगाड़ दिया । आओ, धक्का देकर इसे मकान के बाहर निकाल दो। सेठ की आवाज सुनते ही नौकर आया और संन्यासी को धक्का देकर और घसीट का बाहर निकाला । संन्यासी गिरते-गिरते बचा।
श्रेष्ठी ने संन्यासी के चेहरे को देखा वही प्रसन्नता, वही मधुर मुस्कान उसकी मुखमुद्रा पर अठखेलियाँ कर रही है । श्रेष्ठी अपने स्थान से उठा और संन्यासी के चरणों में गिर पड़ा ।
उसने निवेदन किया- मेरे अपराध को क्षमा करें । मैंने परीक्षा के लिए आपका अनेक बार अपमान किया । कठोर शब्दों में प्रताड़ना दी, पर आप बिना किसी प्रतिक्रिया के घर में आये और बिना किसी प्रतिक्रिया के लौट गये । आपके चेहरे पर एक क्षण भी क्रोध की रेखा उभरी नहीं और न मान का सर्प ही फुफकारें मारने लगा । आपने
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उसाध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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