SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ / संस्कृति और समाज : १३ साधुओंकी आलोचना करना यद्यपि अनुचित ही माना जायगा फिर भी जिस सम्प्रदायके साधुओंकी आलोचना की जाती है उस सम्प्रदाय के लोगोंको इससे रुष्ट भी नहीं होना चाहिये कारण कि आखिर वे साधु किसी-नकिसी रूप में पथभ्रष्ट तो रहते ही हैं अतः रुष्ट होनेकी अपेक्षा दोषोंको निकालनेका ही उन्हें प्रयत्न करना चाहिए । अच्छा होता, यदि भाई परमानन्द कुँवरजी कापड़िया साघुत्वमेंसे नग्नताकी प्रतिष्ठाको समाप्त करनेका प्रयत्न न करके केवल दि० जैन साधुओंके अवगुणोंकी इस तरह आलोचना करते, जिससे उनका मार्गदर्शन होता । प्रश्न - जिस प्रकार पीछी, कमण्डलु ( निर्ग्रन्थ ) बना रहता है उसी प्रकार वस्त्र चाहिये ? और पुस्तक पास में रखनेपर भी दि० जैन साधु अकिंचन रखनेपर भी उसके अकिंचन बने रहनेमें आपत्ति क्यों होना उत्तर- दि० जैन साधु कमण्डलु तो जीवनका अनिवार्य कार्य मलशुद्धिके लिए रखता है, पीछी स्थान शोधन के काम में आती है और पुस्तक ज्ञानवृद्धिका कारण है अतः अकिंचन साधुको इनके पास में रखने की छूट दि० जैन संस्कृति में दी गयी है परन्तु इन वस्तुओंको पासमें रखते हुए वह इनके सम्बन्ध में परिग्रही ही है, अपरिग्रही नहीं । इसी प्रकार जो साधु शरीर रक्षाके लिए अथवा सभ्य कहलाने के लिए वस्त्र धारण करता है तो उसे कम-से-कम उस वस्त्रका परिग्रही मानना अनिवार्य होगा । तात्पर्य यह है कि जो साधु वस्त्र रखते हुए भी अपने को साधुमार्गी मानते हैं या लोक उन्हें साधुमार्गी कहता है तो यह विषय दि० जैन संस्कृतिके दृष्टिकोणके अनुसार विवादका नहीं है क्योंकि दि० जैन संस्कृति में साधुत्वके विषयमें जो नग्नतापर जोर दिया गया है उसका अभिप्राय तो सिर्फ इतना ही है कि वस्त्र साधु नग्न साधुकी अपेक्षा आत्माकी स्वावलम्बन शक्तिके विकास और शरीरकी आत्मनिर्भरताकी उतनी कमी रहना स्वाभाविक है जिस कमीके कारण उसे वस्त्र ग्रहण करना पड़ रहा है। इस प्रकार वस्त्र त्यागकी असामर्थ्य रहते हुए वस्त्रका धारण करना निंदनीय नहीं माना जा सकता है प्रत्युत वस्त्र त्यागकी असामर्थ्य रहते हुए भी नग्नताका धारण करना निन्दनीय ही माना जायेगा क्योंकि इस तरहके प्रयत्नसे साधुत्व में उत्कर्ष होनेकी अपेक्षा अपकर्ष ही हो सकता है यहां कारण है कि दिगम्बर जैनसंस्कृतिमें नग्नताको किसी एक हदतक साधुत्वका परिणाम ही माना गया है साधुत्वमें नग्नताको कारण नहीं माना गया है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये कि साधुत्व ग्रहण करनेकी योग्यता रखनेवाले, पहले तीसरे, चौथे और पाँचवें गुणस्थानवर्ती मनुष्यों में जब साधुत्वका उदय होता है तो उस हालतमें उनके पहले सातवाँ गुणस्थान ही होता है छठा गुणस्थान तो इसके बादमें ही हुआ करता है इसका आशय यही है कि जब मनुष्यकी मानसिक परिणति में साधुत्व समाविष्ट हो जाता है तभी बाह्यरूपमें भी साधुत्वको अपनाते हुए वह नग्नताकी ओर उन्मुख होता है । तात्पर्य यह है कि सप्तम गुणस्थानका आधार साधुत्वकी अन्तर्मुख प्रवृत्ति है और षष्ठ गुणस्थानका आधार साधुत्वकी बहिर्मुख प्रवृत्ति है । साधुत्वकी ओर अभिमुख होनेवाले मनुष्यकी साधुत्वकी अन्तर्मुख प्रवृत्ति पहले हो जाया करती है, इसके बाद ही जब वह मनुष्य बहिः प्रवृत्तिकी ओर झुकता है तब वस्त्रोंका त्याग करता है अतः यह बात स्पष्ट हो जाती है कि साधुत्वका कार्य नग्नता है नग्नताका कार्य साधुत्व नहीं । यद्यपि नग्नता अंतरंग साधुत्वके बिना भी देखने में आती है परन्तु जहाँ अन्तरंग साधुत्व की प्रेरणासे बाह्य वेश में नग्नता को अपनाया जाता है वही सच्चा साधुत्व है । प्रश्न- जब ऊपर के कथनसे यह स्पष्ट होता है कि मनुष्यके सातवाँ गुणस्थान प्रारम्भ में सवस्त्र हालत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212182
Book TitleSadhatva me Nagnataka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size724 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy