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________________ एक प्रकार से विचार किया जाय, तो 'सर्वोदय' इस छोटे-से पद में जैनधर्म के सभी प्रमुख सिद्धान्तों का समावेश हो जाता है । कर्तावाद, का, यहाँ निषेध है । कोई सर्वशक्तिमान, सृष्टि का कर्ता धर्ता हर्ता नहीं है और न ही कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्त्ता हर्त्ता है | एक कर्त्तावाद और बहु कर्त्ता - वाद दोनों ही अमान्य हैं। इसी प्रकार जैनागम जगत् को स्वयंसिद्ध मानता है । यह अनादि है अनन्त है । इसका कभी सर्वथा नाश नहीं होता । परिवर्तन का क्रम निरन्तर जारी रहता है । "यह नित्यानित्यात्मक है, इसकी नित्यता स्वतः सिद्ध है और परिवर्तन इसका स्वभावगत धर्म है ।" जैनदर्शन में 'धर्म' का शब्द का अर्थ अति व्यापक एवं वैज्ञानिक है । वह 'ध्रियते लोकोऽनेन' अथवा 'धरति लोकम्" मात्र न होकर स्वभाव ( Nature, disposition, essential quality, attribute ) को द्योतित करता है । जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता है, अग्नि दाहकता है, आत्मा का धर्म है 'मोहक्षोभविहीन - समतापरिणाम' । इसकी सर्वग्राह्य परिभाषा रत्नकरण्ड श्रावकाचार के द्वितीय श्लोक में आचार्य समन्तभद्र ने निम्नांकित शब्दों में प्रस्तुत की है— "संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।” अर्थात् - जो प्राणियों को संसार दुःख से निकालकर उत्तम सुख में पहुँचा दे, वही धर्म है । संसार का प्रत्येक प्राणी सुखोपलब्धि की आकांक्षा रखता है और दु:ख से दूर भागता है । यह भी उसका स्वभाव ही है । अहिंसा जैनदर्शन का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है । इसका अभिप्राय है- प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा और १ दृष्टव्य — सर्वोदय तीर्थ, पृ० ८ लेखक- डा० हुकुमचन्द भारिल्ल । २ दृष्टव्य - Practical Sanskrit-English Dic tionary, V. S. Apte, p. 522. चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम Jain Education Internationa महत्ता है—उसको पहचानना, उसके प्रति यथासम्भव उदारता का व्यवहार करना । "Do unto others as you would like them to do unto you. " दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि हम अपने लिए अपेक्षा करते हैं । लिंग, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय, राष्ट्रीयता आदि के भेद होते हुए भी जीवन का पवित्र अस्तित्व है । भारतवासी भी उतना ही श्रेष्ठ है जितना अफ्रीका अथवा अमरीका देश में रहने वाला । "शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शुद्ध्याऽस्तु तादृशः । जात्या होनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ॥ 8 जैन आचार- शास्त्र यह मानता है कि 'ऐसा शूद्र भी जिसके उपकरण व आचरण शुद्ध हों, अन्य उच्च वर्णों के समान धर्म- पालन करने योग्य है; क्योंकि जाति से हीन आत्मा भी कालादिक लब्धि को पाकर जैनधर्म का अधिकारी होता है ।' अभिप्राय यही हुआ कि योग्य गुणों के अस्तित्व पर जाति निर्भर करती है। इसी तथ्य को सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध संस्कृत नाटककार भवभूति ने इस प्रकार व्यक्त किया है "शिशुत्वं स्त्रैणं वा भवतु ननु वन्द्यासि जगतम् । गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगं न च वयः ।। 4 पूजनीया अरुन्धती तथा पिता जनक के सम्मुख सीता भले ही छोटी बालिका सरीखी हों परन्तु वन्दनीय है । लिंग अथवा आयु किसी की महनीयता के मापदण्ड नहीं होते। गुणियों में गुण ही पूजा के अधिष्ठान होते हैं । सत्य बोलना और दूसरे की कार को स्वीकार करना भी सम्पत्ति के अधिसर्वोदय के पोषक ३ दृष्टव्य - सागारधर्मामृते, आशाधर:- " भगवान् महावीर और उनका तत्त्वदर्शन". - पृ० सं० २६० । ४ दृष्टव्य - उत्तररामचरितम् - चतुर्थ अंक, श्लोक ११ । साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only २६७ www.jainemfbrary.org
SR No.212173
Book TitleSarvodayi Vichar ki Avadharna ke Prerak Jain Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSharda Swarup
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Social
File Size538 KB
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