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________________ कम / इस सारी साधनाको अहिंसाकी साधना कह सकते हैं। आचारमें अहिंसाके दो रूप हैं-संयम और तप / संयमसे कर्म पुदगुलोंका संवरण तथा तपसे संचितका क्षय होता है। इस प्रकार आत्माके सारे आवरण नष्ट हो जाते हैं। निराकृत आत्मस्वरूप प्रतिष्ठित हो जाता है / उपसंहार निष्कर्ष यह है कि सबसे पहले सम्यकदर्शन अर्थात् जीवाजीवादि सात तत्त्वोंमें श्रद्धा रखे / यह श्रद्धा नैसर्गिक भी हो सकती है और अजित भी। जैसे भी हो, श्रद्धावान् होकर सातों तत्त्वोंका सम्यक्ज्ञान प्राप्त करें। अर्थात पहले श्रद्धावान् होना फिर श्रद्धागोचर तत्त्वोंका ज्ञान करना और तदनन्तर यथाशक्ति श्रावक व्रत या मुनिव्रत धारण करना चाहिये / जो व्यक्ति परिस्थितियोंसे विवश है, वह विरक्ति या अनासक्तिकी दृढ़ता के लिये विचार ही करता रहे। विचार करते-करते चारित्र धारण करनेकी क्षमता उत्पन्न हो जाती है। बिना पूर्ण चरित्रके ध्यान या समाधिकी सिद्धि सम्भव नहीं है। उत्पादित और बलानीत अनासक्ति को स्वभावगत करनेके लिए निरन्तर विचार करते रहना ही एक साधन है / मनन या सम्यक्ज्ञान ही मार्ग है। इस प्रकार साधक जितना ही विषयकी ओरसे विमुख होगा, आत्माकी ओर उतना ही उन्मुख होगा। ज्यों-ज्यों आत्मचिन्तन करता है, त्यों-त्यों आत्मानुभूति होने लगती है, त्यों-त्यों संसार उसे नीरस लगने लगता है / इस तरह आत्मिक शान्तिकी वृद्धि और तेजकी समृद्धि आने लगती है। इस ध्यान या समाधिमें जो सुख मिलता है, वह अनिर्वचनीय है। आनन्दावस्थामें प्रतिष्ठित योगी कोटि-कोटि भव सञ्चित कर्मोको क्षणमात्रमें भस्म कर देता है। आत्मासे परमात्मा बन जाता है। ___इस प्रकार आलोच्य सूत्रोक्त रत्नत्रय असिद्ध दशामें मार्ग है, साधन है, आत्माकी ही परिणति रूप है। यही वेदान्तियोंके श्रवण, मनन, निदिध्यासन है। गीतामें इसे प्रणिपात, परिप्रश्न तथा सेवाके रूपमें कहा गया है। भावना, विवेक तथा तन्मूलक आचारके सम्मिलित प्रयाससे ही व्यक्तिमें निहित परमात्मावधिक सम्भावनाओंका विकास होता है, आत्मा परमात्मा बन जाता है / वस्तुतः ये दर्शन, ज्ञान चरित्र आत्मस्वभाव ही हैं जो आत्माकी ही परिणत शक्तियाँ हैं, इन्होंसे स्वभाव खुलता है। ठीक ही हैस्वभावसे ही स्वभाव पाया जाता है, तभी तो वह स्वयं प्रकाश है। स्वभाव न कहीं जाता है और न कहींसे आता है, स्वभावके ही रूपान्तरित साधनात्मक रूपसे स्वभावका ही सहज रूप उपलब्ध हो जाता है। - 122 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212165
Book TitleSamyag Darshan Gyancharitratrani Mokshmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherZ_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
Publication Year1980
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size607 KB
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