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सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः
आच
ठी, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन
जैन चिन्ताधाराको विशेषताएँ
चार्वाकको छोड़कर हिन्दू संस्कृतिमें ऐसी कोई चिन्ताधारा नहीं है जो जन्म-मरणकी शृंखला न मानती हो । ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन-तीनों ही धारायें इसे स्वीकार करती हैं। इन सबमें केवल मीमांसाधारा हो ऐसी ब्राह्मणवर्गीय चिन्ताधारा है जो शृंखलाका समुच्छेद नहीं मानती । अन्यथा और सभी धारायें जन्म-मरणकी श्रृंखला भी स्वीकार करती हैं और उसका समुच्छेद भी। यह दूसरी बात है कि इनमेंसे जहाँ हीनयानी बौद्ध धारा अनात्मवादी है, वहाँ शेष आत्मवादी । जैन चिन्ताधारा न तो चेतना और पदार्थके विकल्पमें पदार्थवादी है और न ही बौद्धोंकी भाँति अनात्मवादी । निष्कर्ष यह है कि वह आत्मवादके प्रति आस्थावान् है और जन्म-मरणकी शृंखला स्वीकार करती हुई उसका समुच्छेद भी मानती है । जैन चिन्ताधारा उन लोगोंसे सहमत नहीं है जो चरम पुरुषार्थके रूपमें समुच्छेद या आभावात्मक स्थितिकी घोषणा करते हैं। अतः यह न तो इस प्रश्न पर कि जीवनका चरम लक्ष्य मोक्ष क्या और कैसा है, अनात्मवादी हीनयानी बौद्धोंसे सहमत है और न ही आत्मवादी न्याय तथा वैशेषिकसे । क्योंकि जहाँ एक ओर अनात्मवादी हीनयानी समुच्छेदके अनन्तर शून्य ही शून्यकी घोषणा करता है, वहाँ आत्मवादी न्याय-वैशषिक समुच्छेदके बाद भी आत्माकी स्थिति मानता हआ उसे प्रस्तरवत ज्ञानशून्य स्वीकार करता है। सांख्य पातञ्जलकी भाँति आत्मवादी होता हआ भी समच्छेदके अनन्तर निरानन्द स्वरूपावस्थिति मात्र भी उसे चरम पुरुषार्थके रूपमें इष्ट नहीं है। वह वेदान्तियों और आगमिकोंकी भाँति चरमस्थितिको स्वरूपावस्थान तो मानता है, चिदानन्दमय स्वभावमें प्रतिष्ठित तो स्वीकार करता है परन्तु द्वैतवादियोंकी भाँति किसी अतिरिक्त परमेश्वरको नहीं मानता । अन्ततः अद्वैतवादियोंकी भाँति चिदानन्दमय स्वरूपावस्थानको ही पुरुषका चरम पुरुषार्थ मोक्ष स्वीकार करता हुआ भी अपनेको इस अर्थ में विशिष्ट कर लेता है कि वह आत्माको मध्यम परिमाण स्वीकार करता है, न अणु परिमाण, न ही महत् परिमाण । वह मानता है कि आत्मा अनादि परम्परायात आवरक कर्ममलसे आच्छन्न रहकर जन्म-मरणके दु:सह चक्रमें कष्ट भोगता रहता है। इसी चक्रसे मक्त होनेके लिए जैन तीर्थंकरोंने मोक्षमार्गका विचार करते हए जो कुछ कहा है, प्रस्तुत सूत्र उसीका निदर्शक है। मुक्तिका अर्थ 'स्व-भाव' प्राप्ति
दुःखसे मुक्ति सभी चाहते हैं पर यह मुक्ति क्षणिक भी हो सकती है और आत्यन्तिक भी । आत्यन्तिक मक्ति इस चिन्ताधाराके अनुसार तभी सम्भव है जब साधक स्वभावमें स्थित हो जाय । इस धाराके अनुसार 'स्व' भावमें प्रतिष्ठित होने में बाधक है आवरण कर्म । यदि इनका क्षय हो जाय, तो आत्मा स्वरूपमें स्थित हो जाय, स्व भावमें आ जाय । उसका स्व भाव सच्चिदानन्दयता ही है। यही आत्यन्तिक सुख है क्योंकि इसके बाद कर्मोंकी उपाधि लगनेवाली नहीं है। कोंका आत्यन्तिक अभाव ही तो मोक्ष है । दुःखका अनुभव इन्हीं कोंके कारण तो होता है। जहाँ कर्मोका क्षय हो गया, वहाँ दुःख
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