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________________ पंचम खण्ड: ६६९ सम्यग्ज्ञान दीपिका : शास्त्रीय चिन्तन डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री पण्डितजीने जहाँ जयधवल, महाधवल, महाबन्ध, लब्धिसार, सर्वार्थसिद्धि आदि महान् ग्रन्थोंका सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद किया, वहीं आचार्य अमृतचन्द्र सूरि कृत "समयसारकलश" तथा देवसेनसूरि विरचित "आलापद्धति" का भी सम्पादन एवं संशोधन किया। संशोधकके रूपमें पण्डितजीका स्थान विशिष्ट है। इसके अतिरिक्त बीसवीं शतीमें होनेवाले क्षल्लक धर्मदासजी रचित "सम्यग्ज्ञानदीपिका" का आजकी भाषामें सरल अनुवाद भी आपने किया। यह देखकर और जानकर किंचित आश्चर्य अवश्य हआ। क्योंकि पण्डितजीकी पैनी दृष्टि हर किसी रचनापर ठहर कर उसे अपने अध्ययन-लेखनका विषय नहीं बनाती। किसी महत्त्वपूर्ण रचना पर ही उनकी लेखनी चलती है। वास्तवमें ऊपरसे अति सामान्य दिखनेवाली “सम्यग्ज्ञान-दीपिका" अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना है। इसे एक बार ध्यानसे पूरा पढ़े बिना कोई इस बातको स्वीकार नहीं कर सकता। यदि यह सर्वाशमें सच है कि आचार्य कुन्दकुन्द कृत "समयसार" को सम्यक् रूपसे हृदयंगम किए बिना कोई अपनी दृष्टिको निर्मल नहीं बना सकता, तो यह भी सच है कि “सम्यग्ज्ञानदीपिका" को पूर्णतः स्वीकार किए बिना हमारा ज्ञान निर्मल नहीं हो सकता। पहले कभी विद्वानोंका ध्यान इस रचना की ओर नहीं गया, इसलिए यह उपेक्षित रहा। क्षुल्लक ब्र० धर्मदासने वि० सं० १९४६ में माघ की पूर्णिमाके दिन इसे रचकर प्रकाशित किया था। इसका दूसरा संस्करण अमरावतीसे वि० सं० १९९० में प्रकाशित हुआ था। तदनन्तर श्री दि० जैन मुमुक्षु मण्डल, भावनगर ( सौराष्ट्र ) से वि० सं० २०२६ में प्रकाशित हुआ । यह रचना मूलमें पुरानी हिन्दीमें कही गई है, जिसका हिन्दी रूपान्तरण पं० फूलचन्द्रजीने किया है। इसके पूर्व गुजरातीमें अनूदित दो आवृत्तियां सोनगढ़से प्रकाशित हो चुकी थीं। रचनाके सम्बन्धमें जिज्ञासावश सहज ही कई प्रश्न उठते हैं । प्रथम जिनकी रचनाकी इतनी प्रशंसा की जा रही है, वे कौन थे? उन्होंने स्वयं प्रथम भूमिकामें अपने सम्बन्धमें इस प्रकार लिखा है-"मेरे शरीरका नाम क्ष ल्लक ब्रह्मचारी धर्मदास है । "झालरापाटनमें सिद्धसेन मुनि मेरे दीक्षा-शिक्षा, व्रत-नियम और व्यवहार वेशके दाता गुरु है तथा वराड देशमें मुकाम कारंजा पट्टाधीश श्रीमत्देवेन्द्रकीर्तिजी भट्टारकके उपदेश द्वारा मुझे स्व-स्वरूप स्वानुभवगम्य सम्यग्ज्ञानमयी स्वभाव वस्तु की प्राप्त की प्राप्ति देनेवाले श्रीसद्गुरु देवेन्द्रकीर्तिजी हैं, इसलिए मैं मुक्त हैं, बन्ध-मोक्षसे सर्वथा प्रकार वसर्जत सम्यग्ज्ञानमयी स्वभाववस्तु हूँ। ''वही स्वभाववस्तु शब्द-वचन द्वारा श्रीमत्देवेन्द्रकीर्ति तत्पट्टे रतनकीतिजीको मैं भेंट स्वरूप अर्पण कर चुका हूँ। तथा खानदेश मुकाम पारोलामें सेठ नानाशाह तत्पुत्र पीताम्बरदासजी आदि बहुतसे स्त्री-पुरुषोंको तथा आरा, पटना, छपरा, बाढ़, फलटन, झालरापाटन, बुरहानपुर आदि बहुतसे शहर ग्रामोंमें बहुतसे स्त्री-पुरुषोंको स्वभाव-सम्यग्ज्ञानका उपदेश दे चुका हूँ। पूर्वमें लिखा हुआ सब व्यवहारगर्भित समझना । तथा सर्व जीव-राशि जिस स्वभावसे तन्मयी है, उसी स्वभावकी स्वभावना सर्व ही जीव-राशिको होओ-ऐसे मेरे अन्तःकरण में इच्छा हुई है। उस इच्छाके समाधानके लिए यह पुस्तक बनाई है और इसकी पाँच सौ पुस्तक छपाई है। केवल इतना ही उनका परिचय नहीं है, वास्तविक तो यह है-“उस वस्तुका लाभ वा प्राप्तकी प्राप्ति होने योग्य थी, वह हमको हुई । यथा होनी थी सो हो गई, अब होने की नाहिं । धर्मदास क्षुल्लक कहे, इसी जगतके मांहि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212163
Book TitleSamyag gyan dipika Shastriya Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherZ_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf
Publication Year
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size557 KB
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