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________________ १. सामायिक—'मैं सर्व सावद्ययोग से विरत हं' इस भाव के साथ जो समस्त सावध योग का परित्याग किया जाता है, उसे सामायिक संयम कहते हैं । यह द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से कहा गया है । इस नय की अपेक्षा अन्य सब संयमभेद इस एक ही सामायिक संयम के अन्तर्गत हैं। कारण यह कि इस सामायिक संयम में हिंसा-असत्यादि की विवक्षा न करके सभी प्रकार के सावद्य (सपाप) योग का परित्याग किया जाता है।' अजित आदि या पार्श्वनाथ-पर्यन्त २२ तीर्थकर एक सामायिक संयम का ही उपदेश करते हैं । पर भगवान् ऋषभ और महावीर ---- ये दो तीर्थंकर छेदोपस्थापन का उपदेश करते हैं। पांच महाव्रतों का जो विभाग किया गया है वह दूसरों को समझाने, पृथक्-पृथक् परिपालन और सुखपूर्वक विशेष ज्ञान कराने के लिए किया गया है। भगवान् आदि जिनेन्द्र के तीर्थ में शिष्य सरल स्वभाव वाले रहे हैं, इन व्रतों का वे कष्टपूर्वक शोधन करते थे, तथा भगवान् महावीर जिनके तीर्थ में शिष्य वक्रस्वभाव वाले रहे हैं, इससे वे उनका पालन कष्टपूर्वक करते थे । पूर्वकाल के व अन्तिम जिन के काल के शिष्य कल्प्य-अकल्प्य (सेव्यासेव्य) को नहीं जानते थे। इसी कारण से आदि जिनेन्द्र और महावीर जिनेन्द्र ने पृथक्-पृथक् बोध कराने के लिए विभाग करते हुए पांच महाव्रतों आदि के रूप में उपदेश दिया है। २. छेदोपस्थापना विभिन्न देश-कालों में त्रस-स्थावर जीवों के स्वरूप में भेद रहने से उन्हें ठीक न समझ सकने के कारण जो प्रमादवश अनर्थ हुआ है व निरवद्य अनुष्ठान का पालन नहीं किया जा सका है, उससे उपाजित कर्म का जो भली-भांति प्रतीकार किया जाता है उसका नाम छेदोपस्थापना है । अथवा हिंसा-असत्यादि के भेदपूर्वक उस सावध योग से निवृत्त होना, इसे छेदोपस्थापना समझना चाहिए।' धवला में भी लगभग इसी अभिप्राय को प्रकट करते हुए कहा गया है कि उसी एक सामायिक व्रत को जो पांच अथवा बहुत भेदों में विभक्त कर धारण किया जाता है वह छेदोपस्थापना संयम कहलाता है । यह पर्यायाथिक नय की प्रधानता से कहा गया है। ये दोनों संयम प्रमत्तसंयत गुण-स्थान से लेकर अनिवृत्ति करण संयत तक चार गुण-स्थानों में होते हैं।' ३. परिहारविशुद्धि संयमप्राणिहिंसा आदि के परिहार से जिस संयम में शुद्धि होती है उसे 'परिहारविशुद्धि संयम' कहा जाता है। यह संयम जिसने तीस वर्ष का होकर वर्ष पृथक्त्व काल तक तीर्थंकर के पादमूल का आराधन किया है, जो प्रत्याख्यान-पूर्व में पारंगत हआ है, तथा जो जीवों की उत्पत्ति आदि से परिचित और प्रमाद से रहित होता है, ऐसे महाबलशाली अतिशय दुष्कर चर्या का अनुष्ठान करने वाले के होता है, अन्य के वह संभव नहीं है । वह तीनों सन्ध्याकालों को छोड़कर दो गव्यूति गमन किया करता है। धवला में इसे कुछ विशेष स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिसने तीस वर्ष तक इच्छानुसार भोगों का अनुभव कर, सामान्य व विशेष रूप से संयम को ग्रहण करते हुए, विविध प्रकार के प्रत्याख्यान के प्रतिपादक प्रत्याख्यान-पूर्व का भली-भांति अध्ययन किया है, एवं जो उसमें पारंगत होने से सब प्रकार के संशय से रहित हो चुका है, वह विशेष तप के प्रभाव से परिहार-ऋद्धि से सम्पन्न होता हुआ तीर्थंकर के पादमूल में परिहार-शुद्धि संयम को स्वीकार करता है। इस प्रकार, उस संयम को ग्रहण करके वह बैठने, उठने व गमन करने व भोजनपानादि रूप व्यापार में प्राणि-परिहार के विषय में समर्थ होता है, इसीलिए उसे परिहार-शुद्धि संयत कहा जाता है। यह प्रमत्तसंयत और और अप्रमत्तसंयत—इन दो गुणस्थानों में होता है। ४. सूक्ष्मसाम्पराय-साम्पराय नाम कषाय का है। अतिशय सूक्ष्म कषाय क शेष रह जाने पर जो विशुद्धि होती है, उसे सूक्ष्म साम्पराय संयम कहते हैं। यह एक ही सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थान में होता है। ५. यथाख्यात-मोह के पूर्ण रूप से उपशान्त अथवा क्षीण हो जाने पर, जो आत्म-स्वभावरूप अवस्था प्रादुर्भूत होती है, उसका नाम अथाख्यात या यथाख्यात चारित्र है। मोह के क्षय अथवा उपशम के पहले, पूर्ण चारित्र के अनुष्ठाताओं ने उसका निरूपण तो किया है, किन्तु उसे प्राप्त नहीं किया है, इसीलिए उसे 'अथाख्यात' इस नाम से कहा जाता है। अथवा 'यथा' यानी 'जैसा' (आत्मा का स्वभाव) अवस्थित है, उसका उसी प्रकार से निरूपण करने के कारण, उसे 'यथाख्यात' इस नाम से भी कहा जाता है।" यह उपशान्तकषाय, क्षीण १. धवला पु० १, पृ० ३६६ २. मूलाचार, ७/३६-३८ ३. तत्त्वार्थवार्तिक ६, १८, ६-७ ४. धवला पु० १, पृ० ३७० व ३७४ (सूत्र १२५) ५. तत्त्वार्थवार्तिक ६, १८, ८ ६. धवला, पु. १, पृ० ३७०/७१। ७. षट्खण्डागम, सू०१/१/१२६ (पु०१) ८. तत्त्वार्थवार्तिक, ६/१८६, तथा धवला पु० १, पृ० ३७१ ६. षट्खण्डागम, सूत्र-१/१/१२७ (पु० १) १०. तत्त्वार्थवार्तिक, ६/१८/११ १२, तथा धवला-पु० १, पृ. ३७१। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212158
Book TitleSamyak Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size947 KB
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