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________________ आचार्य वसुनन्दी ने अपनी वृत्ति में 'सप्रतिक्रमण दिवस' का अर्थ विकल्प रूप में यह भी किया है कि लोच करके प्रतिक्रमण करना चाहिए। आचेलक्य-चेल नाम वस्त्र का है, वस्त्र यह चमड़ा व बकला आदि अन्य सबका उपलक्षण है। इसका यह अभिप्राय हुआ कि सूती, रेशमी व ऊनी आदि किसी भी प्रकार के वस्त्र, चमड़े और वृक्ष के बकले व पत्ते आदि अन्य किसी से भी जननेन्द्रिय को आच्छादित न करके, बालक के समान निविकार रहना, यह मुनि का 'आचेलक्य' नाम का मूलगुण है । भूषण व वस्त्र से रहित दिगम्बर वेश लोक में पूज्य होता है। इसमें लज्जा को छोड़ते हुए किसी से न तो वस्त्र की याचना करनी पड़ती है, और न उसके फट जाने पर सीने के लिए सुई-धागे आदि की चिन्ता करनी पड़ती है। इस प्रकार वह पूर्णतया स्वावलम्बन का कारण है, जिसकी मुनि-धर्म में अपेक्षा रहती है। अस्नान-स्नान का परित्याग करने से यद्यपि समस्त शरीर जल्ल, मल्ल और स्वेद से आच्छादित रहता है, पर निरन्तर ध्यानअध्ययन आदि में निरत रहने वाले साधु का उस ओर ध्यान न जाना तथा उससे घृणा न करके उसे स्वच्छ रखने का रागभाव न रहना, यह मुनि का अस्नान नामक मूल गुण है। इसके आश्रय से इन्द्रिय-संयम और प्राण-संयम दोनों ही प्रकार के संयम का पालन होता है । जल्ल सर्वांगीण मल को कहा जाता है। शरीर के एक देश में होने वाले मैल को मल्ल और पसीने को स्वेद कहते हैं। क्षिति-शयन-जहां पर तृण आदि रूप किसी प्रकार का संस्तर नहीं है अथवा जिसमें संयम का विघात न हो ऐसे अल्पसंस्तर से जो सहित है तथा जो प्रच्छन्न है--स्त्री व पशु आदि के आवागमन से रहित है, इस प्रकार के प्रासुक (निर्जन्तुक) भूमि-प्रदेश में दण्ड (काष्ठ) या धनुष के समान एक करवट से सोना-यह 'क्षितिशियन' नाम का मूल गुण है।' उक्त प्रकार के जीव-जन्तुओं से रहित शुद्ध भूमि में करवट न बदलकर एक ही करवट से सोने पर जहां स्पर्शन-इन्द्रिय के वश नहीं होना है, वहीं प्राणियों का संरक्षण भी होता है। इस प्रकार दोनों ही प्रकार के संयम का उसमें परिपालन होता है। अदन्तधावन--अंगुलि, नख, दातौन, तृण, पत्थर व बकला आदि से दांतों के मैल को न निकालना, यह अदन्तघर्षणा नाम का मूल गुण है । इसके परिपालन से संयम को रक्षा होने के साथ शरीर की ओर से निर्ममत्व भाव भी होता है। स्थितिभोजन-भीत व खम्भे आदि के आश्रय को छोड़ दोनों पांवों को समान करके, अंजलिपुट से दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर-सम्बद्ध करके स्थित (खड़ा) रहता हुआ जो तीन प्रकार से विशुद्ध स्थान (अपने पांवों का स्थान, उच्छिष्ट के गिरने का स्थान और परोसने वाले का स्थान) में भोजन ग्रहण किया जाता है, उसे स्थिति-भोजन कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि साधु किसी भीत आदि का सहारा न लेकर दोनों हाथों की अंजिल को ही पात्र बनाकर उससे इस प्रकार आहार ग्रहण करता है कि उच्छिष्ट आहार नाभि के नीचे न जा सके। भोजन करते समय दोनों पांव चार अंगुल के अन्तर से सम रहने चाहिए, अन्यथा अन्तराय होता है। अन्य मूल-गुणों के समान इन्द्रिय-संयम व प्राण-संयम दोनों का परिपालन होता है। ___ एकभक्त--सूर्य के उदय और अस्तगमन काल में तीन मुहूर्तों को छोड़कर, अर्थात् सूर्योदय से तीन मुहूर्त बाद और सूर्यास्त होने से तीन मुहूर्त पहले, मध्य के काल में एक, दो अथवा तीन मुहूर्तों में जो एक बार या एक स्थान में भोजन ग्रहण किया जाता है, उसका नाम क्रमशः एकभक्त और एकस्थान है। इनमें एकभक्त यह मूलगुणों के अन्तर्गत है, जबकि 'एकस्थान' उत्तरगुणों के अन्तर्गत है, इस एक-भक्त मूलगुण के परिपालन से इन्द्रिय-जय के साथ इच्छा के निरोधस्वरूप तप भी होता है। इन २८ मूलगुणों के अतिरिक्त अन्य भी कुछ दैनिक अनुष्ठान हैं, जिसका साधु को पालन करना चाहिए। उसका औधिक और पदविभागिक समाचार के रूप में विधान किया गया है। चारित्र के भेद चारित्र अथवा संयम के ये पांच भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार-विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात। १. मूला० १/३० २. " १/३१ ३. " १/३२ ४. मूलाचार १/३३ ५. " १/३४ ७. इसके लिए महावीर जयन्ती-स्मारिका' जयपुर १९८२ में प्रकाशित 'श्रामण्य : साधुसमाचार' शीर्षक लेख द्रष्टव्य है। ८. ध० षट्खण्डागम सू० १/१/१२३ और तत्त्वार्थसून ६/१८ जैन धर्म एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212158
Book TitleSamyak Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size947 KB
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