SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समन्तभद्र भारती ९३ हे मुनीश्वर ! ' स्यात् ' शब्दपूर्वक कथन को लिये हुए आपका जो स्याद्वाद है, वह निर्दोष है, क्योंकि प्रत्यक्ष और आगमादि प्रमाणों के साथ उसका कोई विरोध नहीं है । दूसरा जो ' स्यात् ' शब्दपूर्वकथन से रहित सर्वथा एकान्त वाद है वह निर्दोष नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष और आगमादि प्रमाणों से विरुद्ध है । इन चतुर्विंशति तीर्थंकरों के स्तवनों में गुणकीर्तनादि के साथ कुछ ऐसी बातों का अथवा घटनाओं का भी उल्लेख किया गया है जो इतिहास तथा पौराणिकता से सम्बन्ध रखती हैं। और स्वामी समन्तभद्र की लेखनी से प्रसूत होने के कारण उनका अपना खासा महत्व है । जब भगवान पार्श्वनाथ पर केवल ज्ञान होने से पूर्व सम्बर नामक ज्योतिषी देव ने उपसर्ग किया था और धरणेन्द्र पद्मावती ने उससे उनकी सुरक्षा का प्रयत्न किया था। तब भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । और वह संवर देव भी काललब्धि पाकर शान्त हो गया और उसने सम्यक्त्व की विशुद्धता प्राप्त कर ली । स्तवन में भगवान पार्श्वनाथ के कैवल्य जीवन की उस महत्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख किया गया है । जब भगवान पार्श्वनाथ को विधूत कल्मष और शमोपदेश ईश्वर के रूप में देखकर वे वनवासी तपस्वी भी शरण में प्राप्त हुए थे, जो अपने श्रम को - पंचाग्नि साधनादिरूप प्रयास को विफल समझ गये थे, और भगवान पार्श्वनाथ जैसे विधूत कल्मषघातिकर्म चतुष्टय रूप पाप से रहित - ईश्वर बनने की इच्छा रखते थे उन तपस्वियों की संख्या सात सौ बतलाई गई है।' स्तवन का वह पद्य इस प्रकार है यमीश्वरं वीक्ष्य विधूत - कल्मषं तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । वनौकसः स्वश्रम-वन्ध्य-बुद्धयः शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥ ४ ॥ , स्तुतिविद्या - इस ग्रन्थ का मूलनाम ' स्तुतिविद्या' है, जैसा कि प्रथम मंगल पद्य में प्रयुक्त हुए स्तुतिविद्यां प्रसाधये ' प्रतिज्ञा वाक्य से ज्ञात होता है । यह शब्दालंकार प्रधान ग्रन्थ है । इसमें चित्रालंकार के अनेक रूपों को दिया गया है। उन्हें देखकर आचार्य महोदय के अगाध काव्यकौशल का सहज ही पता चल जाता है । इस ग्रन्थ के कविनाम गर्भचक्रवाले 'गत्वैकस्तुतमेव ' ११६ वे पद्य के सातवें वलय में ' शान्तिवर्मकृतं ' और चौथे वलय में ' जिनस्तुतिशतं ' निकलता है । ग्रन्थ में कई तरह के चक्रवृत्त दिये हैं । स्वामी समन्तभद्र ने अपने इस ग्रन्थ को 'समस्तगुणगणोपेता' और 'सर्वालंकारभूषिता ' बतलाया है । यह ग्रन्थ इतना गूढ़ है कि बिना संस्कृत टीका के लगाना प्रायः असंभव है । इसीसे टीकाकार ने 'योगिनामपि दुष्करा' विशेषण द्वारा योगियों के लिये भी दुर्गम बतलाया है । ग्रन्थ समन्तभद्र भारती का अंगरूप है। इसमें वृषभादि चतुर्विंशति तीर्थंकरों की —- अलंकृत भाषा में कलात्मक स्तुति की गई है इसका शब्दविन्यास अलंकार की विशेषता को लिये हुए है । कहीं श्लोक के एक चरण को उल्टा रख देने से दूसरा चरण बन जाता है । और पूर्वार्ध को उलटकर रख देने से उत्तरार्ध, और समूचे श्लोक को उलट कर रख देने से दूसरा श्लोक बन जाता है । ऐसा होने पर भी उनका अर्थ भिन्न भिन्न है । इस ग्रन्थ के 1 १ प्रापत्सम्यक्त्वशुद्धि चं दृष्ट्वा तद्वनवासिनः । तापसास्त्यक्तमिथ्यात्वाः शतानां सप्तसंयमम् ॥ Jain Education International -उत्तर पुराण ७३, १४६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212131
Book TitleSamantbhadra Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy