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________________ समन्तभद्र भारती ९१ स्व-पर-वैरी कहा गया है । सापेक्ष और निरपेक्ष नयों का सम्बन्ध बतलाते हुए कहा है कि निरपेक्ष नय मिथ्या और सापेक्ष नय सम्यक् हैं, और वस्तु तत्त्व की सिद्धि में सहायक होते हैं । इनसे ग्रन्थ की महत्ता का सहजही बोध हो जाता है । स्वामीजी ने लिखा है कि यह ग्रन्थ हिताभिलाषी भव्य जीवों के लिये सम्यक् और मिथ्या उपदेश के अर्थविशेष की प्रतिपत्ति के लिये रचा गया है' । इस महान् ग्रन्थ पर भट्टाकलंक देव ने ' अष्टशती नाम का भाष्य लिखा है, जो आठसौ श्लोक प्रमाण है । और विद्यानंदाचार्य ने 'अष्टसहस्री' नाम की एक बड़ी टीका लिखी है जो आज भी गूढ है जिसके रहस्य को थोड़े व्यक्ति ही जानते हैं, जिसे 'देवागमालंकृति ' तथा आप्तमीमांसालंकृति भी कहा जाता है। ‘देवागमालंकृति ' में आ. विद्यानन्द ने पूरी ' अष्टशती' को आत्मसात् कर लिया है। अष्टसहस्री पर एक संस्कृत टिप्पण भी है, और देवागम पर एक वृत्ति है जिसके कर्ता आचार्य वसुनन्दी हैं। पं. जयचन्द्रजी छावड़ाने देवागम की हिन्दी टीका लिखी है, जो अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुकी है। स्वयंभू स्तोत्र - प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम स्वयंभूस्तोत्र या चतुर्विंशति जिनस्तुति है । ज स्तोत्रों के प्रारम्भिक शब्दानुसार ' कल्याणमन्दिर ' एकीभाव, भक्तामर और सिद्धप्रिय का नाम रखने की परम्परा रूढ है, उसी तरह प्रारम्भिक शब्द की दृष्टि से स्वयंभू स्तोत्र भी सुघटित है, इसमें वृषभादि चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। दूसरों के उपदेश के बिना ही जिन्हों ने स्वयं मोक्षमार्ग को कर और उसका अनुष्ठान कर अनन्त चतुष्टय स्वरूप- - अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप—आत्म-विकास को प्राप्त किया है उन्हें स्वयंभू कहते हैं । " वृषभादि वीरपर्यन्त चतुर्विंशति तीर्थंकर अनन्त चतुष्टयादि रूप आत्मविकास को प्राप्त हुए हैं । अतः वे स्वयम्भू पद के स्वामी हैं । अतएव यह स्वयम्भुस्तोत्र सार्थक संज्ञा को प्राप्त है । प्रस्तुत ग्रन्थ समन्तभद्र भारती का एक प्रमुख अंग है । रचना अपूर्व और हृदयहारिणी है । यद्यपि यह ग्रन्थ स्तोत्र की पद्धति को लिए हुए है । स्तुतिपरक होने से ही यह ग्रन्थ भक्तियोग की प्रधानता को लिए हुए हैं । गुणानुराग को भक्ति कहते हैं। जब तक मानव का अहंकार नहीं मरता तब तक उसकी विकासभूमि तैयार नहीं होती। पहले से यदि कुछ विकास होता भी है तो वह अहंकार आते ही विनष्ट हो जाता है, कहा भी है- ' किया कराया सब गया जब आया हुंकार ।' इस लोकोक्ति के अनुसार वह दूषित हो जाता है। भक्तियोग से जहाँ अहंकार मरता है वहाँ विनय का विकास होता है, मृदुता उत्पन्न होती है । इसी कारण विकासमार्ग में सबसे प्रथम भक्तियोग को अपनाया गया है। आचार्य समन्तभद्र विकास को प्राप्त शुद्धात्माओं के प्रति कितने विनम्र और उनके गुणों में अनुरक्त थे, यह उनके स्तुति ९. इतीयमान्प्तमीमांसा विहिता हितमिच्छता । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थ - विशेष प्रतिपत्तये ॥ — देवागम ११४ “ स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमवबुद्धय अनुष्ठाय वाऽनन्तचतुष्टयतया भवतीति स्वयंभूः । " - प्रभाचन्द्राचार्यः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212131
Book TitleSamantbhadra Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size1 MB
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