SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समन्तभद्र भारती आचार्य जिनसेन ने कवियों को उत्पन्न करनेवाला विधाता ( ब्रह्मा ) बतलाया है, और लिखा है कि उनके वचनरूपी वज्रपात से कुमतिरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गए थे ।' कविवादीभसिंहसूरि ने समन्तभद्र मुनीश्वर का जयघोष करते हुए उन्हें सरस्वती की स्वच्छन्द विहारभूमि बतलाया है। और लिखा है कि उनके वचनरूपी वज्रनिपात से प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूप पर्वतों की चिटियां खण्ड खण्ड हो गई थीं। समन्तभद्र के आगे प्रतिपक्षी सिद्धान्तों का कोई गौरव नहीं रह गया था । आचार्य जिनसेन ने समन्तभद्र के वचनों को वीर भगवान् के वचनों के समान बतलाया है। शक संवत् १०५९ के एक शिलालेख में तो यहां तक लिखा है कि स्वामी समन्तभद्र वर्द्धमान स्वामी के तीर्थ की सहस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदय को प्राप्त हुए। वीरनन्दी आचार्य ने 'चन्द्रप्रभचरित्र में लिखा है कि गुणों से-सूत के धागों से गूंकी गई निर्मल मोतियों से युक्त और उत्तम पुरुषों के कण्ठ का विभूषण बनी हुई हार यष्टि को-श्रेष्ठ मोतियों की माला को प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन समन्तभद्र की भारती-वाणी को पा लेना कठिन है; क्योंकि वह वाणी निर्मलवृत्त (चरित्र ) रूपी मुक्ताफलों से युक्त है और बड़े बड़े मुनिपुंगवोंआचार्यों ने अपने कण्ठ का आभूषण बनाया है, जैसा कि निम्न पद्य से स्पष्ट है: "गुणान्विता निर्मलवृत्तमौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता । न हारयष्टि परमैव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा च भारती ॥" इस तरह समन्तभद्र की वाणी का जिन्हों ने हृदयंगम किया है वे उसकी गंभीरता और गुरुता से वाकिफ हैं। आचार्य समन्तभद्र की भारती (वाणी) कितनी महत्त्वपूर्ण है इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। स्वामी समन्तभद्र ने अपनी लोकोपकारिणी वाणी से जैन मार्ग को सब ओरसे कल्याणकारी बनाने का प्रयत्न किया है। जिन्होंने उनकी भारती का अध्ययन और मनन किया है वे उसके महत्त्व से परिचित हैं। उनकी वाणी में उपेय और उपाय दोनों तत्त्वों का कथन अंकित है, जो पूर्वपक्ष का निराकरण करने में समर्थ है, जिसमें सप्त भंगों सप्त नयों द्वारा जीवादि तत्त्वों का परिज्ञान कराया गया है । और जिसमें आगमद्वारा वस्तु धर्मों को सिद्ध किया गया है । जिसके प्रभाव से पात्रकेशरी जैसे ब्राह्मण विद्वान जैन धर्म की १. नमः समन्तभद्राय महते कवि वेधसे । यदचो वज्रपातेन निर्भिन्ना कुभताद्रयः ।। २. सरस्वती-स्वैर-विहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वज्र-निपात-पाटित-प्रतिपराद्धान्त महीघ्रकोटयः॥ -गद्य चिन्तामणि ३. 'वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़ुभते ।' –हरिवंशपुराण ४. देखो, वेलूर तालुके का शिलालेख नं. १७, जो सौम्यनाथ मन्दिर की छत के एक पत्थर पर उत्कीर्ण है। -स्वामी समन्तभद्र, पृ. ४६ । ५. जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः। -मल्लिषेणप्रशस्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212131
Book TitleSamantbhadra Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy