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________________ समन्तभद्र भारती शुभाशुभभावों, तरतमता और कषायादि परिणामों की तीव्रता -मन्दतादि के कारण कर्म प्रकृतियों में बराबर संक्रमण होता रहता है । जिस समय कर्म प्रकृतियों के उदय की प्रबलता होती है उस समय प्रायः उनके अनुरूप ही कार्य सम्पन्न होता है । फिर भी वीतरागदेव की उपासना के समय उनके पुण्यगुणों का प्रेमपूर्वक स्मरण और चिन्तन द्वारा उनमें अनुराग बढ़ाने से शुभ परिणामों की उत्पत्ति होती है जिससे पाप परिणति छूट जाती है और पुण्य परिणति उसका स्थान लेलती है, इससे पाप प्रकृतियों का रस सूख जाता है और पुण्य प्रकृतियों का रस बढ़ जाता है। पुण्य प्रकृतियों के रस में अभिवद्धि होने से अन्तराय कर्म जो मूल पाप प्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न करती हैउन्हें होने नहीं देती-वह भग्न रस होकर निर्बल हो जाती है, फिर वह हमारे इष्ट कार्यों में बाधा पहुँचाने में समर्थ नहीं होती । तब हमारे लौकिक कार्य अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं। जैसा कि तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में उद्धृत निम्न पद्य से प्रकट है : “नेष्टं विहन्तुं शुभभाव-भग्न-रसप्रकर्षः प्रभुरन्तरामः । तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्पादिरिष्टार्थ कदाऽर्हदादेः ॥" इससे वीतराग देव की निर्दोष भक्ति अमित फल को देनेवाली है इसमें कोई बाधा नहीं आती। युक्त्यनुशासन-इस ग्रन्थ का नाम युक्त्यनुशासन है। यह ६४ पद्यों की एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक कृति है। यद्यपि आचार्य समन्तभद्र ने ग्रन्थ के आदि और अन्त के पद्यों में युक्त्यनुशासन का कोई नामोल्लेख नहीं किया, किन्तु उनमें स्पष्ट रूप से वीर जिनस्तवन की प्रतिज्ञा और उसी की परिसमाप्ति का उल्लेख है।' इस कारण ग्रन्थ का प्रथम नाम वीरजिनस्तोत्र है।' ___ आचार्य समन्तभद्र ने स्वयं ४८ वें पद्य में ‘युक्त्यनुशासन' पद का प्रयोग कर उसकी सार्थकता प्रदर्शित की है, और बतलाया है कि युक्त्यनुशासन शास्त्र प्रत्यक्ष और आगम से अविरुद्ध अर्थ का प्रतिपादक है । "- दृष्टाऽऽगमाभ्यामविरुद्धमर्थ प्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।” अथवा जो युक्ति प्रत्यक्ष और आगम के विरुद्ध नहीं है, उस वस्तु की व्यवस्था करने वाले शास्त्र का नाम युक्त्यनुशासन है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्तु तत्व का जो कथन प्रत्यक्ष और आगम से विरुद्ध है वह युक्त्यनुशासन नहीं हो सकता। साध्याविना भावी साधन से होने वाले साध्यार्थ का कथन युक्त्यनुशासन है।' इस परिभाषा को वे उदाहरण द्वारा पुष्ट करते हुए कहते हैं कि वास्तव में वस्तु स्वरूप स्थिति, उत्पत्ति और विनाश इन तीनों को प्रति समय लिये हुए ही व्यवस्थित होता है। इस उदाहरण में जिस १. 'स्तुति गोचरत्वं निनीषवःस्मो वयमद्यवीरं ।' युक्त्यनुशासन १. 'स्तुतः शक्त्याश्रेयः पद्मधिगस्त्वं जिन ! मया, महावीरो वीरोदुरित परसेनाऽभिविजय' ॥ ६४ ॥ २. 'अन्यथानुपपन्नत्वनियमनिश्चयलक्षणात् साधनात्साध्यार्थ प्ररूपणं युक्त्यनुशासनमिति ।' -युक्त्यनुशासन टीका पृ. १२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212131
Book TitleSamantbhadra Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size1 MB
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