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________________ लेखसार जैन प्रामाण्यवाद पर एक टिप्पणी डा० आत्सुशी यूनो, हिरोशिमा विश्वविद्यालय, हिरोशिमा, जापान प्रामाण्यवाद ज्ञान की सत्यता को वस्तुनिष्ठ या ज्ञातानिष्ठ रूप से विचार करता है / इस पर प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने विचार किया है। ज्ञान का प्रामाण्य दो प्रकार से संभव है : स्वतः और परतः / ज्ञान-मात्रोत्पादक कारण सामग्री इसमें स्वतः प्रामाण्य उत्पन्न करती हैं जबकि ज्ञान-ग्राहक-कारण सामग्री से ज्ञान में परतः प्रामाण्य आता है। प्रामाण्यवाद पर सर्वप्रथम मीमांसकों ने विचार किया था। उन्होंने आगम के आधार पर ज्ञान का प्रामाण्य स्वीकार किया था। सर्वदर्शन संग्रह में चार प्रमुख भारतीय दर्शनों का एतद्विषयक मत प्रकट किया गया है जिसका संक्षेपण निम्न हैं : ज्ञान का प्रामाण्य (i) स्वतः (उत्पत्ति, ज्ञप्ति) मीमांसक, सांख्य, शंकर वेदान्त (i) परतः (उत्पत्ति, ज्ञप्ति) न्याय-वैशेषिक ज्ञान का अप्रामाण्य (i) स्वतः (उत्पत्ति, ज्ञप्ति) : सांख्य (ii) परतः : मीमांसक, न्याय, वेदान्त न्याय के विपर्यास में जैन ज्ञान को ज्ञातानिष्ठता के आधार पर प्रमाण मानते हैं। देवसूरि ने प्रमाणनयतत्वालोक तथा स्याद्वादरत्नाकर में इस विषय में यही तथ्य स्पष्ट किया है / इसके अनुसार, उत्पत्ति के समय प्रामाण्य परतः ही होता है जब कि ज्ञप्ति के समय यह स्वतः भी हो सकता है और परतः भी हो सकता है। इस विषय में परीक्षामुख तथा प्रमेयकमलमात्तंड भी द्रष्टव्य हैं। ___ ज्ञान का प्रामाण्य, उत्पत्ति या ज्ञप्ति दशा में गुण-दोषों पर निर्भर करता है। दोषों के कारण ज्ञान में अप्रामाण्य आता है। मीमांसकों और बौद्धों ने इन गुणों और दोषों पर विचार किया है। लेकिन जैन दार्शनिकों ने इस पर विशेष चर्चा नहीं की है। प्रामाण्यवाद के संबंध में जैन मत को निम्न प्रकार संक्षेपित किया जा सकता है : (1) ज्ञान के प्रामाण्य का विचार उत्पत्ति तथा ज्ञप्ति दशा के आधार पर किया जाता है / प्रभाचंद्र ने इसमें स्वकार्य की तीसरी दशा भी जोड़ दी है। ज्ञप्ति के लिए प्रवृत्ति आवश्यक है जो ऐच्छिक क्रिया पर निर्भर करती है। यह प्रवृत्ति न केवल ज्ञान को प्रमाणता देती है अपितु इसका निर्धारण भी प्रमाणता के आधार पर ही होता है। अनन्तवीर्य ने प्रमेयरत्नमाला में प्रामाण्य को उत्पत्ति एवं स्वकार्य दशा में विषय परिच्छित्ति और प्रवृत्ति के रूप में निरूपित किया है। (II) न्याय-वैशेषिकों के समान जैनों ने भी अनवस्था को दूर करने के लिए कुछ स्वयं सिद्ध ज्ञान माने हैं जिनका प्रामाण्य सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। (III) ज्ञप्ति के विषय में यह निश्चित नहीं रहता कि यह स्वतः ही होती है या परतः / यह ज्ञानोत्पत्ति की दशा एवं वस्तु-परिचय पर निर्भर करती है / विद्यानंदि और माणिक्यनंदि का यह मत तत्वसंग्रह और उसकी पंजिका के समान ग्रन्थों के आधार पर बना प्रतीत होता है। नव्य नैयायिकों ने भी बाद में इसी के अनुरूप मत स्वीकार किया है। -548 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212130
Book TitleSome Remarks on The Pramanyavada of Jainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtsushi Uno
PublisherZ_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
Publication Year1980
Total Pages7
LanguageEnglish
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size663 KB
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