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श्रीरूपेन्द्र कुमार पगारिया, न्यायतीर्थ
सप्तभंगी
जैनधर्म जितना आचार जगत् में गहरा उतरा है, विचार-जगत् में भी उतना ही गहरा उतरा है. जन्म और मृत्यु जैसे विकट संकट से सर्वथा मुक्ति पाने के लिए साधक के जीवन में आचारशुद्धि और विचार शुद्धि दोनों की आवश्यकता है. आचार और विचार दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. एकान्तक्रियावाद की पगडण्डी पर चलने वाला साधक सही विचार के अभाव में अपने गंतव्य स्थल पर नहीं पहुँच सकता. विशुद्ध आचार को समझने के लिए तत्त्वज्ञान की आवश्यकता होती है. जब तक साधक को पदार्थ के सही स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक वह कितनी ही क्रिया की गहराई में क्यों न गया हो, ज्ञान के अभाव में उसकी साधना की सफलता में सन्देह ही रहता है. उसे तत्त्व ज्ञान रूप दीपक की आवश्यकता है. इसी दीपक से सहारे वह अपने गंतव्य स्थल पर पहुँच सकता है.
वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता: - किसी भी वस्तु के सच्चे ज्ञान के लिए उसके सही स्वरूप को जानना नितान्त आवश्यक है. वस्तु अनन्तधर्मात्मक है. हमारा ज्ञान ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाता है त्यों-त्यों अज्ञात धर्म ज्ञात होते जाते हैं. वस्तु का पूर्ण ज्ञान होना ही सर्वज्ञता है. भौतिक विज्ञान पदार्थ के पर्यायों की खोज करता है. उसके गुण-धर्मों को बताता है. उसमें कौन-कौन सी प्रक्रियाएँ होती हैं, यह भी बताता है. तत्त्वज्ञान ऐसा नहीं करता. वह तो पदार्थ के गुणों को स्वीकार करके ही आगे बढ़ता है. इन वस्तुओं के गुणधर्मों का पदार्थ के साथ कैसा सम्बन्ध है, यह बताने का काम तत्त्वज्ञान का है. वस्तु में अगणित गुण-धर्म होते हैं, जिनमें कुछ तो ज्ञात होते हैं, कुछ अर्धज्ञात और कुछ अज्ञात ऐसी अवस्था में यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति में कठिनाई अवश्य सामने आती है.
इस कठिनाई के कारण तत्त्वज्ञान के इतिहास में अनेक संशयवादों का जन्म हुआ है. दार्शनिक तत्त्व-विचार में संशयवाद लम्बे समय तक नहीं टिक सकता. उसका समाधान कहीं न कहीं निकल ही आता है. जो लोग यह कहते हैं कि सत्य हमेशा अज्ञात रहता है, उनका यह कथन भी निर्णीत सत्य ही तो है. भगवान् महावीर ने अपने समय के एकांतवादों को खण्डित सत्य कहा. उन खण्डित सत्यों के एकीकरण के लिए उन्होंने समन्वयात्मक एवं सापेक्ष दृष्टि रखी. यही व्यापक दृष्टि तत्त्व चितक साधक को सत्य की ओर ले जाती है.
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सत्य विशाल, व्यापक, अखण्ड और अनन्त होता है, परन्तु सामान्यतः मानव का नहीं पाता, खण्डरूप में अथवा अनेक अंशों में ही वस्तु का ज्ञान कर पाता है. सत्य को जीवन में उतारने के लिए व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है. व्यष्टि, समष्टि और परमेष्ठी जीवन विकास की यह कमपद्धति है जैनदर्शन की सत्योन्मुखी अनेकान्तदृष्टि, जैनधर्म का सर्व सहिष्णु अहिंसा सिद्धांत और जैन परम्परा का चिरागत समन्वयवाद, ये तीनों मिलकर एक ही कार्य करते हैं और वह है व्यक्ति समष्टि के विकास में अवरोधक न बने बल्कि समझौता करके परमेष्ठी से रूप में परिणत हो जाय-परमज्योति बन जाय.
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इस श्रेयस् एवं विशाल दृष्टिकोण को जीवन में ढालने से पूर्व वस्तु तत्त्व के स्वरूप को समझ लेना आवश्यक है. चेतनअचेतनमय इस जगत् की प्रत्येक वस्तु अनन्तगुण-धर्मों का अखण्ड पिण्ड है. वह कभी नहीं रही यह नहीं कहा जा सकता. वह नहीं है - यह भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन कहा यह जायगा कि वह थी, है और रहेगी. वृत्त, वर्तमान और वर्तिष्यमान् इन तीनों कालों में कभी भी उसका अभाव नहीं होता. अतः वस्तु सत् है, शाश्वत है, नित्य है, परन्तु कूटस्थ नित्य नहीं, अपितु परिणामी नित्य है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण पूर्व पर्याय का विगम और उत्तर पर्याय का उत्पाद
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परिमित ज्ञान उसे सम्पूर्ण रूप में जान
सत्य के परिज्ञान के लिए अथवा ज्ञात
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