SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीरमेश उपाध्याय सत्यं शिवं सुन्दरम् मानवीय विचारों की एक परम्परागत अपौरुषेय शृंखला होती है. अपौरुषेय इस अर्थ में कि परम्परा में आने पर विचार किसी एक व्यक्ति का नहीं रह जाता. उसमें अनेक व्यक्तियों के विचारों का सार निहित रहता है. कभी-कभी इन परम्परागत विचारों को सूत्रों में बांध लिया जाता है. ऐसे सूत्र उन विचारों का प्रतिनिधित्व तो करते ही हैं, नये विचारों की प्रेरणा भी देते रहते हैं. 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' भी एक ऐसा ही सूत्र है जिसके पीछे दार्शनिक विचारों की एक लम्बी श्रृंखला है और जिसमें नये-नये विचारों की कड़ियां जुड़ने की अनेक सम्भावनाएं हैं. सूत्र के प्रथम पद 'सत्य' को पहचानने, पाने और स्वरूप निर्धारण के प्रयत्न प्राचीनकाल से होते रहे हैं. भारतीय दार्शनिकों ने ही नहीं सुक्रात, प्लेटो, अरस्तु आदि विश्व के अन्य असंख्य सत्यान्वेषियों ने सत्य की व्याख्याएं की हैं और प्रयोग किये हैं. निकट अतीत में गांधी का उदाहरण सत्यार्थी के रूप में दिया जा सकता है. कोई शब्द जितना अधिक सार्थक होता है, उतनी ही कठिन उसकी व्याख्या होती है. शब्दों का लचीलापन और उनकी व्यापकता, दो ऐसे आयाम हैं जो व्याख्या का विशाल क्षेत्र प्रदान करते हैं. यही कारण है कि सत्य की एक सीमित परिभाषा देना असम्भव है. यों, कोई परिभाषा वैसे भी स्वयं में पूर्ण नहीं होती होनी भी नहीं चाहिए क्यों कि ऐसा होने पर चिन्तन की दिशा अवरुद्ध होने लगती है. कहने को कह सकते हैं कि सत्य एक स्थिति है, ऐसी स्थिति जिसके अस्तित्व के विषय में कोई संदेह नहीं किया जा सकता किन्तु विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने पर उसके विभिन्न रूपाकार दृष्टिगोचर हो सकते हैं. यही कारण है कि प्रत्येक युग में सत्य-सम्बन्धी मान्यताएँ बदलती रहती हैं. एक उदाहरण द्वारा इस बात को स्पष्ट कर दं. प्राचीन काल में 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' के आधार पर ईश्वर के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु असत्य या माया समझी जाती थी और नितान्त आधुनिक विचारों के लोग ठीक इसके विपरीत बात कहते हुए सुने जाते हैं. कोई व्यक्ति निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि यही अन्तिम सत्य है. सत्य को एक सूक्ष्म अनुभूति के रूप में ही जाना जा सकता है उसको किसी आकार में ढालने पर उसकी सत्यता में संदेह होने लगता है. मैं तो कहूँगा कि यह संदेह ही हमें सत्य की खोज के लिये प्रेरित किया करता है. साहित्य में सत्य एक स्थायी मूल्य है और अनिवार्य आवश्यकता है. असत्य प्रतीत होने वाली कृतियां भी सत्य पर आधारित होती हैं. भले ही उनकी सत्यता परिवेश के अनुसार उभर कर सामने आ सके. साहित्यकार जिस दृष्टिकोण से चीजों को देखता है और ईमानदारी से उनके प्रभाव को अभिव्यक्ति देता है, वह उसका अपना सत्य है. वह सत्य बहुमत द्वारा मान्य भी हो सकता है और अमान्य भी. बहुमत द्वारा अमान्य साहित्यिक सच्चाइयों को परखते समय तात Jain N Y Use o Dorary.org
SR No.212121
Book TitleSatyam Shivam Sundaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamesh Upadhyay
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size516 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy