________________ सती प्रथा और जैनधर्म पति के प्रति अपने अनन्य प्रेम के कारण मृत्यु का वरण करती है। भोगलिप्सा का शिकार होकर नारकीय जीवन जीने की अपेक्षा मृत्युकभी-कभी वह इसलिए भी पति की चिता पर अपना देहोत्सर्ग कर देती वरण को श्रेष्ठ मान लिया / / है कि भावी जन्म में उसे पुन: उसी पति की प्राप्ति होगी। जैनाचार्यों ने फिर भी जैनाचार्यों ने कभी भी इस प्रथा का समर्थन नहीं सती-प्रथा के इन रूपों को उचित नहीं माना है। किन्तु इन रूपों से भिन्न किया-उनके अनुसार यदि स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चापत् मरने को एक ऐसा भी रूप है जिसे जैनाचार्यों ने उचित माना है जिसमें स्त्री-मात्र विवश किया जाता है तो यह कृत्य पंचेन्द्रिय मनुष्य की हत्या का बर्बर अपने शील की रक्षा के लिए पति के जीवित रहते हुए या पति की मृत्यु कृत्य ही माना जायेगा अत: वह कृत्य धार्मिक या धर्मसम्मत कृत्य नहीं के उपरान्त मृत्यु का वरण कर देहोत्सर्ग कर देती है। है / अपितु महापातक ही है और मारने वाला उस पाप का दोषी है / उपर्युक्त स्थितियों में जहाँ तक पति के स्वर्गवास के पश्चात् यदि दूसरी और स्त्री स्वेच्छा से असुरक्षा की भावनावश या अनन्य उसकी पत्नी को उसकी इच्छा के बिना मात्र इस विचार से कि परलोक प्रेमवश मृत्यु का वरण करती है तो उसका यह कृत्य रागयुक्त होने के में वह उसे उपलब्ध होगी उसके साथ दफना देने या जला देने की प्रथा कारण आत्महत्या की कोटि में जाता है, यह आत्म-हिंसा है अत: यह का प्रश्न है, यह अति प्राचीन काल से प्रचलित रही है। मिस्र में भी भी पापकर्म है / पुन: जैनधर्म की मान्यता है कि परलोक में व्यक्ति को इस प्रथा के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, यह पुरुष-प्रधान संस्कृति का कौन सी योनि मिलेगी यह तो उसके कर्मों (सदाचरण या दुराचरण) पर सर्वाधिक घृणित रूप था जिसमें स्त्री मात्र पुरुष के उपभोग की वस्तु थी। निर्भर करता है, पति की मृत्यु पर उसका सहगमन करने पर अनिवार्य उसके उपभोग की अन्य वस्तुओं के समान उसे भी उसके साथ दफनाना रूप से पतिलोक को प्राप्त होगी, यह आवश्यक नहीं है / अत: इस आवश्यक माना जाता था / जहाँ तक जैनधर्म और उसके साहित्य का भावना से सती होकर वह सत्री पतिलोक को प्राप्त होगी, स्त्री का पति प्रश्न है, हमें ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं है जहाँ इस प्रथा का की चिता पर जलाया जाना या जलना जैनधर्म की दृष्टि से न तो धार्मिक उल्लेख और उसे अनुमोदन प्राप्त हो / यद्यपि जैनकथा साहित्य में ऐसे है और न नैतिक ही / इसके विपरीत डा० जगदीश चन्द्र जैन की उल्लेख अवश्य मिलते हैं जिसमें एक भव के पति-पत्नी अनेक भवों सूचनानुसार महानिशीथ (वर्तमान स्वरूप ईसवी सन् 8 वीं शती के पूर्व) तक पति-पत्नी के रूप में एक दूसरों को उपलब्ध होते रहे हैं, किन्तु में एक उल्लेख आता है कि राजा की एक विधवा कन्या सती होना किसी भी घटना में ऐसा उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला, जहाँ मात्र चाहती थी, किन्तु उसके पितृकुल में इस प्रकार की परम्परा नहीं थी इसी प्रयोजन से स्त्री के द्वारा मृत्युवरण किया गया हो और जिसका अत: उसने अपना विचार त्याग दिया / इस घटना के उल्लेख से यह जैनाचार्यों ने अनुमोदन किया हो / अतः सतीप्रथा का यह रूप जैनधर्म स्पष्ट हो जाता है, उस युग में सम्पूर्ण समाज में सती होने की परम्परा में कभी मान्य नहीं रहा। नहीं थी अपितु राजकुलों में भी केवल कुछ ही राजकुलों में ऐसी परम्परा जहाँ तक स्वेच्छा से, असुरक्षा का अनुभव करके या पति के थी। प्रति अनन्य प्रेमवश पति की मृत्यु पर उसका सहगमन का प्रश्न है - श्री अगरचन्द जी नाहटा ने भी पट्टावलियों के आधार पर यह जैन साहित्य में सर्वप्रथम निशीथचूर्णि (७वीं शताब्दी) में हमें एक उल्लेख किया है कि श्री जिनदत्त सूरि (ई० सन् 11 शती) ने जब वे उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार सोपारक के एक राजा ने करापवंचन झंझुणु (राज.) में थे श्रीमाल जाति की एक बालविधवा को उपदेश के अपराध में नगर के पाँच सौ व्यापारियों को जीवित जला देने का देकर सती होने से रोका और उसे जैनसाध्वी की दीक्षा प्रदान की / इसी आदेश दिया, उनकी पत्निायाँ भी अपने पतियों का अनुसरण करते हुए प्रकार १७वीं शती के सन्त आनन्दघन ने भी सती प्रथा की आलोचना जलकर मर गई / यद्यपि जिनदास गणि महत्तर इस घटना का विवरण करते हुए ऋषभदेव स्तवन में लिखा है कि परलोक में पति मिलेगा इस प्रस्तुत करते हैं किन्तु वे किसी भी रूप में इसका अनुमोदन नहीं करते आकांक्षा से स्त्री अग्नि में जल जाती है, किन्तु यह मिलाप सम्भव नहीं हैं / यद्यपि इस कथानक से इतना अवश्य फलित होता है कि यह होता है / अत: पति की मृत्यु पर पत्नी द्वारा देहोत्सर्ग कर देना जैनधर्म सतीप्रथा भारत में मुस्लिम शासकों के आक्रमण के पूर्व भी अस्तित्व में कभी भी अनुमोदित नहीं था। में थी, वैसे हमें ७वीं शती के पूर्व निर्मित हिन्दू पौराणिक साहित्य में किन्तु दोनों रूपों से भिन्न अपने शील की रक्षा के लिये ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ पत्नी-पति की मृत्यु पर उसकी चिता में देहोत्सर्ग कर देना सतीत्व का एक ऐसा भी रूप है जिसे जैनाचार्यों ने जलकर सहगमन करती है / अत: जैन स्रोतों से भी इतना तो निश्चित मान्यता दी है। उनके अनुसार चाहे पति जीवित हो या उसका स्वर्गवास हो जाता है कि यह प्रथा मुस्लिम शासकों के पूर्व भी अपना अस्तित्व हो चुका हो यदि स्त्री इस स्थिति में आ गई है कि शीलरक्षा हेतु रखती थी / इतना अवश्य हुआ कि मुस्लिम शासकों के आक्रमण और मृत्युवरण के अतिरिक्त उसके सामने अन्य कोई विकल्प ही नहीं रह गया नारी जाति के प्रति उनके और उनके सैनिकों के दुर्व्यवहार से नारी में है, तो ऐसी स्थिति में अपने शील की रक्षा के निमित्त अपने प्राणों का असुरक्षा की भावना बढ़ती गयी एवं अपनी शील-रक्षा का प्रश्न उसके उत्सर्ग कर देना ही श्रेयस्कर है। जैनाचार्य मात्र ऐसी स्थिति में ही स्त्री सामने गम्भीर बनता गया / फलत: भारतीय मानस सतीप्रथा का के मृत्युवरण को नैतिक एवं धार्मिक मानते हैं / जैनाचार्यों की दृष्टि में समर्थन करने लगा और नारी ने पति की मृत्यु के पश्चात् दूसरों की पतिव्रता होना स्त्री के लिये अति आवश्यक है किन्तु पतिव्रता होने का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org