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संस्कृति निर्माता युगादिदेव तापसों की उत्पत्ति
जब ऋषभदेव को एक वर्ष तक शुद्ध आहार न मिला तब उनके साथ के दीक्षित सामंतादिकों ने कंद, फलादि पर निर्वाह करना शुरू किया, यहाँ से ही तापसों की परंपरा चली।
ब्राह्मणों की उत्पत्ति
भरत राजा ने चक्रवर्ति बनने के लिये भाइयों पर आक्रमण किया। भाई ऋषभदेव के पास गये। योगीश्वर के पास वे भी योगी बने। शरमिंदा बनकर भरत भाइयों से क्षमा मांगने और उनको
अन्नपान देने गया। “साधु को अपने लिये बना हुअा अन्न और राजपिंड त्याज्य है" यह ऋषभदेवजी से सुनकर उसने सुश्रावकों को (शुद्ध-आचार-विचारवान् ज्ञानी लोगों को) जिमाना शुरू किया। वे हमेशा भरत को आशीर्वाद से सावधान करते “जीतो भवान्। वर्धते भयं । तस्मात् मा हन, मा हन।" ‘मा हन'का उपदेश देनेवाले ये माहन या ब्राह्मण बने । उनके लिए इतर शब्द वुढ्सावया भी अनुयोग द्वार में है।
यज्ञोपवीत की उत्पत्ति
राजभोजनालय में भोजन करनेवालों की संख्या दिन ब दिन बढ़ने लगी, तब भरत राजा ने काकिणी रत्न से 'दर्शन-ज्ञान-चरित्र' ये रत्नत्रयी की निशानी के रूप में तीन रेखाएँ की। काकिणी रत्न के अभाव से सूर्ययशा ने सोने की, बाद में चंद्रयशा ने रूपे की जनेऊ कराई जो आज सूत्र की बनती है । वेदों की उत्पत्ति
ज्ञानी माहणों ने ऋषभदेव की वाणी को गूंथकर चार वेदों की रचना की-१ संसार दर्शन, २ संस्थानपरामर्श, ३ तत्त्वावबोध, ४ विद्याप्रबोध । कालानुक्रम से ८ वें तीर्थकर के बाद जीवहिंसा से युक्त नये वेदों की रचना की गई।
अग्निहोत्री और अग्निपूजा
"अग्निमुखा वै देवाः" यह श्रुति ऋषभदेव के निर्वाण के बाद प्रचलित हुई, कारण उनकी चिता को अग्नि लगाने का सम्मान अग्निकुमार देव को मिला। इस वक्त उस चिता में से अग्नि लेनेवाले ब्राह्मण अग्निहोत्री कहलाये। उस अग्नि को कायम रखकर उसे पूजने लगे। अमिपूजा का यही रहस्य है।
सांख्यमत
ऋषभदेव
भरत
मरीचि त्रिदंडी (संन्यासी बना हुआ) मरीचि के शिष्य-कपिलमुनि कपिलमुनि के शिष्य-आसुरी श्रासुरी के शिष्य-शंख (सांख्य मत के स्थापक)
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