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________________ में परिणत कर दिया गया; इसलिए इन छाया-ग्रन्थों की गणना संस्कृत ग्रन्थों में की जा सकती है। ऐसे ग्रन्थों में गोमट्टस्वामि द्वारा रचित गोमट्टसार जीवकाण्ड में जीवों का तथा गोमट्टसार कर्मकाण्ड में कर्मों का विस्तृत वर्णन है। नेमिचन्द्राचार्य के 'द्रव्यसंग्रह' में षड्द्रव्यों का, पञ्चास्तिकाय में कालद्रव्य के अतिरिक्त पांच द्रव्यों का वर्णन है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति' में तीनों लोकों का भौगोलिक वर्णन दिया गया है। जैन संस्कृत आचार-ग्रन्थों में श्री समन्तभद्राचार्य का रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्री अमितगति आचार्य का पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्री आशाधर स्वामी का सागरधर्मामृत तथा अनगारधर्मामृत आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों में श्रावकों के तथा मुनियों के आचरण-सम्बन्धी विधिनिषेधमय नियमों, आचारों तथा क्रिया-कलापों का वर्णन है। इनके साथ-साथ जैनाचार्यों ने संस्कृत में आध्यात्मिक ग्रन्थों की भी रचना की जिनमें आत्मा-परमात्मा का, अनित्यादि भावनाओं का समाधिभरणादि का चिन्तन है। ऐसे ग्रन्थों में स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, आत्मानुशासन, समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। तत्त्वार्थसूत्र अथवा मोक्षशास्त्र जैन सिद्धान्त का संस्कृत सूत्र-शैली में लिखा गया मूल ग्रन्थ है। भिन्न-भिन्न विषयों के ऊपर इसमें दस अध्याय हैं जिनमें सारा जैन सिद्धान्त विषय समाविष्ट है । इसके ऊपर सर्वार्थसिद्धि, राजवातिक, श्लोकवार्तिक आदि बड़े-बड़े भाष्य भी संस्कृत में लिखे गये हैं। संस्कृत भाषा में लिखे गये जैन दर्शनशास्त्रों की तो जैन साहित्य में बहुलता है। जैन न्यायदीपिका, आत्ममीमांसा, आत्मपरीक्षा, जैन तत्त्वानुशासन, अष्टसाहस्री आदि अनेक जैन दर्शनशास्त्र ओजस्वी भाषा में लिखे गये, जिनमें अन्य दर्शनों की मान्यताओं तथा सिद्धान्तों का खण्डन और अपने सिद्धान्तों का मण्डन अकाट्य युक्तियों द्वारा किया गया है। विशेषतः इनमें बौद्ध सिद्धान्तों का खण्डन है। जैन तर्कशास्त्र का मूल, सूत्र रूप में लिखा गया संस्कृत-ग्रन्थ 'परीक्षामुख' है । इसके ऊपर प्रमेयरत्नमाला छोटा तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड बड़ा भाष्य है। इसके अतिरिक्त जैन साहित्य में अनेक मन्त्रशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र तथा औषधिशास्त्र भी संस्कृत में लिखे गये हैं। इस प्रकार साहित्य शब्द के व्यापक रूप में जैन संस्कृत ग्रन्थों का यहां पर संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है, जिससे हमें ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों तथा विद्वानों का संस्कृत भाषा तथा साहित्य में कितना बड़ा और व्यापक योगदान है। सांसारिक वैभव की असारता का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं आयुर्वायुतरस्तरंग तरलं लग्नापदः संपदः ___ सर्वेऽपीन्द्रिय गोचराश्च चटुलाः संध्याभ्ररागादिवत् । मित्र स्त्री स्वजनादिसंगमसुखं स्वप्नेन्द्रजालोपम तत्किं वस्तु भवे भवेदिह मुदामालम्बनं यत्सताम् ॥ मनुष्य का जीवन हवा के झोंकों से लहराती हुई लहरों के समान चंचल है। सम्पत्ति विपत्तियों से घिरी हुई है। सुख दुःख से लगा हुआ है। जीवन का हर नाटक दुःखान्त है। कान-नाक-जीभ आदि इन्द्रियों को सुखद प्रतीत होने वाले विषय संध्या-काल के आकाश की अरुणिमा (लालिमा) की भांति कुछ क्षण-भर ही टिकने वाले हैं। और मित्र-स्त्री-स्वजन-पुत्र आदि विषयों के मिलन का सुख ऐता है जैसे जादूगर का खेल हो, या कोई मधुर स्वप्न हो । संसार की प्रत्येक वस्तु जब ऐसी क्षण-विनाशिनी है, अनित्य है, तब विवेकी पुरुष के लिए, वस्तु के परिणाम को समझने वाले ज्ञानी के लिए, संसार में ऐसा क्या है, जिसके सहारे, जिसके आलम्बन से, उसे कुछ शाश्वत सुख की अनुभूति हो?- अर्थात् ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमें शाश्वत सुख दे सके। अतः भव्य जीवों को अपने एक-एक पल का सदुपयोग करते हुए श्री जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित धर्म को धारण करके नित्य-निरन्तर आत्म-कल्याण की भावना करनी चाहिए। (-आचार्य रत्न श्री देशभुषणजी महाराज-कृत उपदेशसारसंग्रह, प्रथम भाग, पृ० ११) जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212109
Book TitleSanskrut me Prachin Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size472 KB
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