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________________ प्राचीन जैन संस्कृत काव्यों में द्वयस्मय अथवा द्वयर्थक काव्यों का अपना निराला ही स्थान है। श्री धनञ्जय महाकवि द्वारा रचित द्विसन्धान महाकाव्य में रामायण तथा पाण्डवकथा श्लिष्ट रूप में साथ-साथ वर्णन की गई हैं। इसी प्रकार श्री हरिदत्त सूरि के राघवनैषधीय महाकाव्य में श्रीराम और महाराज नल-दोनों कथाओं का श्लिष्ट रूप में वर्णन है। तथा राघवपाण्डवीय काव्य में श्रीराम और पाण्डवों की कथाएं साथ-साथ श्लिष्ट रूप में चलती हैं । यद्यपि महाकाव्यों में दो-चार सगों में यमकालंकार का प्रदर्शन अवश्यंभावी है, किन्तु पार्वाभ्युदय काव्य का कोई भी श्लोक ऐसा नहीं है जिसमें यमकालंकार न हो। यही नहीं, श्री मेघविजय सूरि के सप्तसंधान नामक महाकाव्य में सात कथाएं श्लिष्ट रूप से वणित की गई हैं। जैन साहित्य में प्राचीन संस्कृत आख्यायिकों की गणना में जैनकवि श्री वादिराजसूरि रचित गद्यचिन्तामणि तथा श्री धनपाल कविरचित तिलकमजरी, कादम्बरी तथा दशकुमारचरित की समकक्ष रचनाएं हैं। इनके अतिरिक्त नर्मदासुन्दरीचरित, श्रीशान्तिनाथचरित, चंद्रकेवलिचरितम्, भुवनभानुकेवलिचरितम्, पृथ्वीचरित, शीलव्रत कथा, प्रियंकर नृपकथा, आदिभरतेश्वर वृत्ति, बृहत्कथाकोष, चन्द्रधवलभूपकथा आदि गद्यमय आख्यायिका-ग्रन्थ जैन कवियों के द्वारा रचे गये हैं और वे संस्कृत गद्यकाव्य के भण्डार को सुशोभित करते हैं। जैन साहित्य में गद्यमय कथा-साहित्य की भी कमी नहीं है। अपराजितकथानकम् , जैनकथाकोष, चित्रसंभूति कथा, पर्वकथा संग्रह, भविष्यदत्तकथा, मूलदेवकथा आदि कथाग्रन्थ जैन साहित्य के संस्कृत पद्यमय कथा-साहित्य के उदाहरण हैं । गद्य-पद्यमय सुन्दर शैली में लिखे गये चम्पू-काव्यों की भी प्राचीन जैन संस्कृत साहित्य में बड़ी ही सुन्दर रचनाएं हुई हैं। श्री सोमदेवसूरि-रचित यशस्तिलक चम्पू, श्री हरिश्चन्द्र महाकवि विरचित जीवन्धर चम्पू तथा अन्य जैन संस्कृत कवियों के द्वारा रचित पुरुदेव चम्पू आदि ग्रन्थ जैन चम्पू-काव्यों के सुन्दर नमूने हैं और तुलना में ये जैनेतर संस्कृत चम्पूकाव्य-नलचम्पू, भारतचम्पू आदि के समकक्ष रखे जा सकते हैं । बल्कि यशस्तिलक चम्पू तो राजनीति का सुन्दर काव्य समझा जाता है। प्राचीन जैन संस्कृत-साहित्य में सुन्दर जैन संस्कृत-नाटक भी विद्यमान हैं, कितु संख्या में काफी कम हैं। श्री हस्तिमल्ल कवि द्वारा रचित-विक्रान्तकौरव तथा मैथिलीकल्याण नाटक बहुत ही सुन्दर नाटक हैं। इसी प्रकार कवि नागदेव का मदनपराजय तथा अन्य जैन कवियों के मकरध्वज-पराजय, मुक्तिबोध, मुदित कुमुदचन्द्र, प्रबोध-चन्द्रोदय आदि नाटक मनोभावों का मानवीयकरण बड़े ही सुन्दर रूप में प्रस्तुत करते हैं। प्राचीन जैन संस्कृत साहित्य में सुभाषित-रत्नसन्दोह, नीति-वाक्यामृत, उपदेशतरंगिणी आदि नीति-ग्रन्थ भी विद्यमान हैं, जिनको हम सूक्तिकाव्यों में रख सकते हैं । प्राचीन जैन कवियों ने सुन्दर काव्यमय शैली में जैन स्तोत्र भी रचे हैं, जिनमें श्री समन्तभद्राचार्य का देवागमस्तोत्र तथा स्वयंभूस्तोत्र बड़ी ही सुन्दर दार्शनिक शैली के स्तोत्र हैं । देवागमस्तोत्र के ऊपर तो आत्ममीमांसा वृत्ति तथा अष्टसाहस्री महाभाष्य लिखे गये हैं। इसमें जिनेन्द्र भगवान् को सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। इनके अतिरिक्त भक्तामर, कल्याणमन्दिर एकीभाव, विषापहार, ऋषि मंडलस्तोत्र, जिन चतुर्विशतिस्तोत्र, अकलंकस्तोत्र आदि अनेक स्तोत्र काव्यमय शैली में लिखे गये हैं। यदि यहां जैन पुराणों का परिचय नहीं दिया जाय तो यह लेख अधूरा ही समझा जायेगा । प्राचीन जैनाचार्यों ने जैन पुराणों को लिखने में भी काव्यमय शैली का ही अनुसरण किया है। सबसे पहला जैन संस्कृतपुराण पद्मपुराण है जिसे हम जैन रामायण भी कह सकते हैं। इस पुराण को श्री रविषेणाचार्य ने श्री विमल सूरि के प्राकृत महाकाव्य 'पउम-चरिअ' के आधार पर संस्कृत में श्लोकबद्ध किया था। इसमें श्रीराम और रावण की वंशावलि का इतिहास भी दिया गया है । तत्पश्चात् जिनसेनाचार्य ने हरिवंश पुराण की रचना की और इसके बाद काव्यमय शैली में महापुराण लिखा गया। आचार्य श्री जिनसेन ने इसे प्रारम्भ किया और वे इसके आदिपुराण भाग को ही पूरा कर पाये। इसके शेष भाग को इनके प्रधान शिष्य श्री गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण के रूप में पूरा किया। आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती का वर्णन है तथा उत्तरपुराण में शेष २३ तीर्थंकरों, चक्रवतियों, नारायण, प्रतिनारायण तथा बलभद्रों का वर्णन है । इनके अतिरिक्त पाण्डवपुराण, पार्श्वपुराण आदि अन्य पुराण भी जैन आचार्यों ने संस्कृत पद्यों में लिखे। उपर्युक्त जैन संस्कृत काव्य-साहित्य के अतिरिक्त जैनाचार्यों ने अलंकार-ग्रन्थ भी लिखे, जिनमें श्री धनञ्जय कवि का दशरूपक नाटकों के ऊपर तथा श्री अजितसेनाचार्य रचित 'अलंकारचिन्तामणि' अलंकारों के ऊपर सुन्दर ग्रन्थ हैं । इसके अतिरिक्त श्री वाग्भट्टाचार्य का काव्यानुशासन तथा वाग्भट्टालंकार, श्री हेचन्द्राचार्य का काव्यानुशासन आदि अलंकार-ग्रन्थ भी बहुत प्रसिद्ध हैं। इनके साथ-साथ काव्यकल्पलतावृत्ति, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रबन्धकोष आदि ग्रन्थ काव्यरचना के शिक्षा-ग्रन्थ हैं। श्री धनंजय कवि की धनंजयनाममाला' नाम का जैन कोष-ग्रन्थ भी जैन संस्कृत साहित्य में विद्यमान है। प्राचीन जैनाचार्यों ने संस्कृत व्याकरण-ग्रन्थ भी लिखे। इनमें श्री शाकटायनाचार्य का शाकटायन व्याकरण, श्री गुणनन्दि आचार्य का जैनेन्द्र व्याकरण तथा उसके ऊपर शब्दार्णवचन्द्रिका, जैनेन्द्र-महावृत्ति तथा जैनेन्द्र-प्रक्रिया आदि संस्कृत-व्याकरण के सुन्दर ग्रन्थ हैं। जैन सिद्धान्त के ऊपर प्राचीन ग्रन्थ यद्यपि मूलरूप में अर्धमागधी प्राकृत भाषा में रचे गये थे, किन्तु बाद में उनकी गाथाओं को संस्कृत छायारूप आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212109
Book TitleSanskrut me Prachin Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size472 KB
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