________________
संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा
३६१
विद्वचिन्तामणि ----मुनि विनयसागरसूरि ने इसकी रचना की थी। स्वयं ग्रन्थकार ने इसका परिचय इस प्रकार दिया है
श्री विधिपक्षगच्छेशाः, सूरिकल्याणसागराः । तेषां शिष्यैर्वराचाय: सूरिविनयसागरैः ॥२४॥ सारस्वतस्य सूत्राणां, पद्यबन्धैर्विनिर्मितः ।
विद्वच्चिन्तामणि ग्रन्थः कण्ठपाठस्य हेतवे ॥२५॥ इसकी एक प्रति ला०६० संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में विद्यमान है । शब्दप्रक्रियासाधनी-आचार्य विजयराजेन्द्र सूरि ने २०वीं शताब्दी में इसकी रचना की।
शब्दार्थचन्द्रिका-विजयानन्द के शिप्य हंसविजयगणि ने इसकी रचना की थी। सं० १७०८ में ग्रन्थकार के विद्यमान होने का उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त इनका अन्य परिचय नहीं मिलता है।
सारस्वतटीका-मुनि सत्यप्रबोध ने इसका प्रणयन किया । पाटन और लींबड़ी के भण्डारों में इसके हस्तलेख प्राप्त होते हैं।
सारस्वतटीका-इस श्लोकबद्ध टीका की रचना तपागच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्र के शिष्य देवचन्द्र ने की थी। श्री अगरचन्द नाहटा के संग्रह में इसकी प्रति प्राप्त है।
___ सारस्वतटीका-अपरनाम धनसागरी नामक इस ग्रन्थ की रचना मुनि धनसागर ने की थी। इसका उल्लेख जैन साहित्य के संक्षिप्त इतिहास में किया गया है।
सारस्वतरूपमाला-रचनाकार पद्मसुन्दरगणि ने इसमें धातुरूपों को दर्शाया है । वि० सं० १७४० में लिखी गई इसकी प्रति ला० द. भा. संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में प्राप्त है ।
सारस्वतमण्डनम्--श्रीमालजातीय मन्त्री मण्डन ने १५वीं शताब्दी में रचना की थी।
सारस्वतवृत्ति-तपागच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्र ने १७वीं शताब्दी में इस वृत्तिग्रन्थ की रचना की थी। यह क्षेमेन्द्र रचित सारस्वत टिप्पणी पर वृत्ति है। इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ पाटण तथा छाणी के ज्ञान भण्डारों में .. विद्यमान हैं।
सारस्वतवृत्ति-वि सं० १६८१ में खरतरगच्छीय मुनि सहजकीति ने इसकी रचना की थी। इसके हस्तलेख बीकानेर के श्री पूजाजी तथा चतुर्भुजजी के भण्डार में सुरक्षित हैं।
सिद्धान्तरत्नम-युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इस ग्रन्थ के रचनाकार जिनरत्न थे। यह बहुत अर्वाचीन ग्रन्थ माना है।
सिद्धान्त चन्द्रिका व्याकरण की टीकाएँ रामाश्रम या रामचन्द्राश्रम ने "सिद्धान्तचन्द्रिका" नामक एक विशदवृत्ति का प्रणयन किया। इसमें लगभग २३०० हजार सूत्र हैं। इस पर भी जैनाचार्यों द्वारा रचित अनेक टीका-ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । इनका सामान्य परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
__ अनिटकारिका स्वोपज्ञवृत्ति-नागपुरीय तपागच्छ के हर्षकीतिसूरि ने इसकी रचना की है। अनिट्कारिका पर यह स्वपोज्ञवृत्ति है। रचनाकाल सं० १९६६ है । बीकानेर के दानसागर भण्डार में इसकी हस्तलिखित प्रति विद्यमान है।
सुबोधिनी-खरतर आम्नाय के श्री भक्तिविनय के शिष्य सदानन्दगणि ने इस ग्रन्थ की रचना की। इसमें भाये श्लोक के अनुसार इसका रचनाकाल १७६६ है । श्लोक इस प्रकार है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org