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संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा
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पाणिनीय व्याकरण-टीकाएँ आचार्य पाणिनि का शब्दानुशासन किसी न किसी रूप में संस्कृत भाषा का या इसके माध्यम से अन्य विषयों का अध्ययन करने वालों का प्रिय रहा है । जैनाचार्यों में भी इसका किसी न किसी रूप में प्रचलन अवश्य रहा है। अनेक आचार्यों ने इस पर टीका ग्रन्थ भी लिखे। इस प्रकार के टीका-ग्रन्थों का परिचयात्मक विवरण इस प्रकार है
व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि सुधानिधि की रचना आचार्य विश्वेश्वरसूरि ने की है। ग्रन्थ का सर्जन अष्टाध्यायी सूत्रक्रम को ध्यान में रखकर किया गया है। यह ग्रन्थ प्रारम्भ के तीन अध्यायों पर ही उपलब्ध होता है, जिसका विद्याविलास प्रेस से दो भागों में प्रकाशन भी हो चुका है। इसके मंगलचरण के पाँचवें श्लोक में पतंजलि के प्रति जो श्रद्धा व्यक्त की गई है, उससे प्रतीत होता है, इस ग्रन्थ का प्रणयन महाभाष्य को आधार मानकर किया गया होगा। श्लोक इस प्रकार है
विषये फणिनायकस्य क्षमते नैनं विधातुमल्पमेधाः ।
विबुधाधिपतिप्रसादधाराः पुनरारादुपकारमारभन्ते । इनका समय भट्टोजी दीक्षित के बाद तथा उनके पौत्र हरिदीक्षित के पूर्व माना गया है।'
शब्दावतारन्यास इस ग्रन्थ के प्रणेता जैनेन्द्र व्याकरण के रचनाकार पूज्यपाद देवनन्दी थे। ग्रन्थ अप्राप्य है। अन्यत्र उल्लेखों के आधार पर यह कहा जाता है कि इसकी रचना पूज्यपाद ने की। इस सम्बन्ध में शिमोगा जिले की नगर तहसील के एक शिलालेख को भी उद्धृत किया जाता है। श्लोक इस प्रकार है
न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञ सकल बुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो । न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । सस्तत्वार्थस्य टीकां व्यरचदिह भात्यसौ पूज्यपादः । स्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोधवृतः ॥
प्रक्रियामंजरी यह कृति काशिकावृत्ति पर टीका ग्रन्थ है । इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ मद्रास तथा त्रिवेन्द्रम में संग्रहीत हैं। इसका प्रणयन मुनि विद्यासागर ने किया है। इनके गुरु का नाम श्वेतगिरि था। इन्होंने ग्रन्थ के प्रारम्भ में न्यासकार का उल्लेख भी बड़े आदर के साथ किया है । पद्य इस प्रकार है
वन्दे मुनीन्द्रान् मुनिवृन्दवन्द्यान्, श्रीमद्गुरुन् श्वेतगिरीन् वरिष्ठान् । न्यासकारवच: पद्मनिकरोद्गीर्णमम्बरे,
गृह,णामि-मधुप्रीतो विद्यासागर षट्पदः । इसमें जिन न्यासकार का स्मरण किया गया है वे पूज्यपाद देवनन्दी अथवा काशिका विवरण पंजिका न्यास के कर्ता आचार्य जिनेन्द्रबुद्धि रहे होंगे।
क्रियाकलाप इसकी रचना आचार्य भावदेवसूरि के गुरु भावडारगच्छीय आचार्य जिनदेवसूरि ने की थी। रचनाकाल वि. सं० १४१२ के आसपास का है।
१. वही, पृ० १०२--जानकीप्रसाद द्विवेदी : संस्कृत व्याकरणों पर जैनाचार्यों की टीकाएँ।
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