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९४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
रह जाती है । जिस राशिकी कमीके प्रारम्भ होनेकी कल्पना नहीं कर सकते, ऐसी हालतमें वह राशि कितनी ही बड़ी क्यों न हो, यदि वह अक्षयानन्त नहीं है तो बहुत पहिले ही नष्ट हो जाना चाहिये थी, घटनेपर भी यदि वह आज भी विद्यमान है तो कभी नष्ट नहीं होगी' यह सिद्धान्त अटल हो जाता है । जिस राशिकी घटते-घटते समाप्ति हो जाय, वह अनन्त तो कही जा सकती है लेकिन अक्षयानन्त नहीं। अनन्तराशिकी यदि समाप्ति होती है तो उसके घटनेका प्रारंभ भी अवश्य होता है किन्तु अक्षयानन्त राशि घटनेके प्रारंभ और समाप्ति दोनोंसे रहित होती है, उसकी सदा मध्यकी हालत बनी रहती है। भविष्यत्कालके समय अनादिसे वर्तमान होते हुए भूतरूप हो रहे हैं, भव्यजीव अनादिसे मोक्ष जा रहे हैं फिर भी दोनोंकी सत्ता इस समय मौजूद है, इसलिये कभी इनका अन्त नहीं होगा।
शंका--(१) जीवका संसार अनादिकालसे चला आ रहा है। (२) जीवका भव्यत्वभाव अनादिकालसे है । (३) आज जिस कार्यकी उत्पत्ति हुई तो कहना होगा कि अनादिकालसे आजतक उसका प्रागभाव रहा । लेकिन संसार, भव्यत्व और प्रागभावका अन्त भी माना जाता है ?
उत्तर--प्रत्येक द्रव्यका स्वभाव परिवर्तन करनेका है। परिवर्तनमें पूर्व पर्यायका नाश और उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति होती है अर्थात् पूर्व वर्तमान पर्याय भूत हो जाती है और उत्तर भविष्यत् पर्याय वर्तमान हो जाती है, यह क्रम अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक रहेगा।।
(१) जीव द्रव्यके बहुतसे परिणमन पुद्गलद्रव्यसे संबद्ध हालतमें होते हैं । लेकिन पुद्गलद्रव्यका संबन्ध छूट सकता है, इसलिये जबतक पुद्गलद्रव्यसे संबद्ध हालतमें जीव परिणमन करता रहेगा, तबतक जितनी पर्याय उत्पन्न या विनष्ट होंगो उन सबके समूहका नाम ही जीवका संसार है और इसके आगे जो पर्यायें उत्पन्न या विनष्ट होंगी, उन सबके समूहका नाम जीवका मोक्ष है।
(२) भव्यत्वभाव भी इसी तरहकी पर्यायोंकी अपेक्षा लिये हुए है, कारण कि जबतक जीवको सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक तो भव्यत्वभाव उस जीवमें संपूर्णरूपसे विद्यमान रहता है और सम्यग्दर्शनके सद्भावसे जिस समय जीवको मोक्ष हो जाता है वहाँतककी पर्यायोंके परिवर्तनके क्रमसे भव्यत्वभाव भी नष्ट होते-होते अन्तमें सर्वथा नष्ट हो जाता है।
(३) कार्यका प्रागभाव भी उस कार्य के पूर्व अनादिकालसे होनेवाली द्रव्यकी पर्यायोंके समूहका ही नाम है।
जबकि पर्यायें हमेशा उत्पन्न और विनष्ट होती रहती है अर्थात भविष्यत् पर्यायें वर्तमान और वर्तमान भूत होती रहती हैं तो जैसा-जैसा पर्यायोंमें अन्तर आता जायगा वैसा-वैसा संसार, भव्यत्व और प्रागभावमें भी अन्तर आता जायगा और जब ये पर्यायें क्रमसे उत्पन्न होकर विनष्ट हो जायेंगी तब जीवके संसार व भव्यत्वका और कार्यके प्रागभावका व्यवहार नहीं होगा, लेकिन यह कभी संभव नहीं, कि ऐसा होनेसे उस द्रव्यकी आगेकी पर्यायोंके उत्पाद और विनाशका क्रम भी नष्ट हो जायगा । यह क्रम अनादि है तो अवश्य रहेगा । भविष्यत् कालका एक समय वर्तमान होता है और फिर भूत हो जाता है। इसी तरह दूसरे, तीसरे समयोंका भी नियम है। भव्यजीवोंमेंसे छः महिना आठ समयमें ६०८ जीवोंके मोक्ष जानेका नियम है और इन दोनोंका यह क्रम अनादिकालसे चला आ रहा है तो इसका कोई कारण नहीं कि वह क्रम नष्ट हो जायगा।
शंका--काल आकाशकी तरह अपरिमित है, इसलिये उसकी समाप्ति न हो, लेकिन भव्यजीव जितने मोक्ष चले जाते हैं वे फिर कभी संसारमें आते नहीं, इसलिये उनका अन्त अवश्य हो जाना चाहिये ?
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