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तपस्वी जी का जन्म सन् १९०६ में हरियाणा के रिण्ढाणा (सोनीपत) ग्राम में हुआ। सन् १९४५ में व्याख्यान वाचस्पति श्री मदनलालजी म. के पास भागवती जैन दीक्षा ग्रहण की और सन् १९८७, सोनीपत में ७३ दिन के संधारा पूर्वक स्वर्गवास हो गया।
आपने जीवन में कोई विशेष लम्बी तपस्याएँ नहीं की, किन्तु जीवन के संध्याकाल में जिस प्रकार दीर्घ संथारा संलेखना करके जीवन को कृतार्थ किया और समूचे विश्व में जैन जीवन शैली को प्रतिष्ठित किया, यह सचमुच एक ऐतिहासिक कार्य हुआ।
सन् १९८७ के अगस्त मास में महान तपस्वी जैन सन्त श्री बद्री प्रसादजी म. ने देहली के निकट सोनीपत (हरियाणा) में ७३ दिन का सुदीर्घ संथारा किया था, देश-विदेश की समाचार ऐजेन्सियाँ- पी. टी. आई. यू. एन. आई. आदि के प्रतिनिधियों ने वहाँ जाकर जो कुछ देखा, समझा, वह उनकी भौतिक समझ से परे था। अनेक डाक्टर, वकील, बड़े-बड़े राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी तपस्वीजी के दर्शन किये, उनसे बातचीत की। शरीर एवं मन की स्थितियाँ देखीं तो सभी ने यह अनुभव किया कि शरीर की स्थिति अत्यन्त क्षीण व निराशाजनक होते हुए भी उनके चेहरे पर तेज ओज था उनकी वाणी में दृढ़ता और जीवन के प्रति अनासक्ति एवं मृत्यु के प्रति अभय भावना बड़ी अद्भुत व आश्चर्यजनक थी। ऐसा लग रहा था कि शरीर की क्षीण दीवट में दिव्य आत्म-ज्योति दीपक दीप्तिमान है।
तपस्वी जी के अन्तेवासी श्री सुन्दरमुनिजी की रिपोर्ट के अनुसार १९ जुलाई से ४ अगस्त के बीच सिर की चोट, फिर हार्ट के एनाजाइना पेन, तथा बाद में दस्त आदि के कारण उनकी शरीर स्थिति अत्यन्त क्षीण हो चुकी थी । ४ अगस्त को डॉक्टरों ने उनके शरीर का परीक्षण करके कहा- मुनिजी के शरीर का जल खत्म हो चुका है। अतः तुरन्त ग्लूकोज दिया जाये अन्यथा २४ घंटा से अधिक जीवित रह पाना संभव नहीं हैं। किन्तु उस स्थिति में मुनिश्री बद्रीप्रसाद जी ने बार-बार अपने शिष्यों से आग्रह करके कहा - " अब मुझे न कोई दवा की जरूरत है, और न ही अन्य किसी चीज की। मैं जीवन भर के लिए अन्न को त्यागकर शान्तिपूर्वक आत्मस्थ होना चाहता हूँ। मुझे शास्त्र सुनाओ और भक्ति पूर्ण स्तोत्र आदि का निरन्तर पाठ कराओ।"
५ अगस्त को उन्होंने संथारा व्रत ग्रहण किया। उसके २६ घंटा बाद उनकी शारीरिक स्थिति में एकाएक परिवर्तन आने लग गया। पहले जबान लड़खड़ा रही थी, किन्तु अब वह स्पष्ट और सशक्त हो गई। पहले उनका चेहरा मुर्झाया था, किन्तु २६ घंटा बाद जैसे भीतर से आभा दमक कर फूटकर बाहर आ रही है, मुख मुद्रा तेजस्वी दीखने लगी। शरीर स्थिति में यह आश्चर्यजनक रासायनिक परिवर्तन आ गया, जो शरीर विज्ञान की समझ से परे था।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
१६ सितम्बर तक तो शरीर अस्थिसंहनन (हड्डियों का ढाँचा मात्र) रह गया। पसलियों को एक-दो-तीन करके गिना जा सकता था। पांवों और हाथों की खाल ऐसे लटक गई थी जैसे पुराने वट वृक्ष की शाखाएँ लटक जाती हैं.....। किन्तु उनके चेहरे पर काफी चमक थी, जो आत्मा की प्रसन्नता प्रकट करती थी। सशक्तता भी थी। ८ अक्टूबर से तो जल का भी त्याग कर दिया था। १० अक्टूबर को सुन्दर मुनि के पूछने पर उन्होंने कहा- "मैं अब मृत्यु से अतीत पार का जीवन जी रहा हूँ। मेरा मन बहुत प्रसन्न है........ जिस शान्त तेजोमय शक्ति से जी रहा हूँ। वह वाणी से अगम्य है.. • तुम चाहो तो उसका अनुभव कर सकते हो........”
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११ अक्टूबर से उन्होंने सम्पूर्ण मौनव्रत धारण कर लिया.... और १६ अक्टूबर को ७३ दिन के दीर्घ अनशन काल में समाधिपूर्वक देह त्याग किया। प्राण त्यागते समय बिल्कुल शान्ति के साथ उन्होंने नाभिकेन्द्र को झकझोरा, तीन लम्बे साँस लिये, आँखें पूरी खुल गई, केश खड़े हो गये।... एक प्रकाश पुंज निकलता सा प्रतीत हुआ।
इस महान तपस्वी के संथारा का प्रत्यक्ष दर्शन करने वाले सैंकड़ों हजारों जनों ने अध्यात्मशक्ति को सहज अनुभव किया, अन्तःकरण में यह भावना भी कि 'हे प्रभु ! हमें भी इसी प्रकार का शान्तिपूर्वक समाधिमरण प्राप्त हो।" किंन्तु कुछ सांप्रदायिक भावना रखने वाले, धर्म और अध्यात्म नाम से ही नफरत करने वाले लोगों ने इस संधारा पर टीका टिप्पणी भी की प्रश्नचिन्ह भी लगाये....... किन्तु फिर भी इस भौतिकवादी युग में यह एक ऐसा प्रत्यक्ष उदाहरण था जिसने सभी को अध्यात्म की अगम्य-शक्ति के समक्ष नतमस्तक कर दिया।
मनुष्य शरीर और इन्द्रियों के प्रति किस प्रकार निरपेक्ष होकर शान्ति एवं समाधिपूर्वक जी सकता है, और मर भी सकता है। इस विषय पर सोचने को बाध्य करता है। मृत्यु का सहज वरण करने की यह अध्यात्म प्रक्रिया शान्ति मृत्यु का मार्ग प्रशस्त करती है । ६
आचार्य श्री हस्तीमलजी म. का आदर्श समाधिमरण
आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज इस युग के एक अत्यन्त प्रभावशाली चारित्रनिष्ठ बहुश्रुत आचार्य हुए हैं। उन्होंने जीवन भर सामायिक स्वाध्याय, व्यसन मुक्त जीवन के लिए हजारों हजार व्यक्तियों को प्रेरणा और मार्गदर्शन दिया। जैन धर्म के इतिहास लेखन का एक विशिष्ट कार्य किया। शरीर से सामान्य कृशकाय थे। परन्तु उनका मनोबल अद्भुत था। वैसे जीवन में तेले से अधिक का दीर्घ तपश्चरण नहीं कर सके, किन्तु जीवन के संध्याकाल में, अत्यधिक शारीरिक अस्वस्थता के बाबजूद अचानक ही इतना अद्भुत आत्मबल जागृत हुआ कि तप संलेखना करते हुए यावज्जीवन संथारा की स्थिति में पहुँच गये।