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संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
६५९ । “पांचमुं देवलोक वि. १८० मुकटा" उपस्थित दर्शकों का अनुमान सुनते, आज तपस्वीजी का ३२वाँ, या ३०वाँ दिन के उपवास का है कि संभव है उन्होंने, अपने आगामी भव के विषय में जो पारणा हुआ। गुप्त तप के साथ शान्ति, समभाव और स्वाध्यायअनुभूति हुई "पाँचवा देवलोक का मुक्ता नामक १८०वाँ विमान", | लीनता भी अद्भुत थी। जीवन में उन्होंने अनेक लम्बी तपस्याएँ व यह प्रकट करना चाहा।
एकान्तर तप किये। २२ अक्टूबर की अन्तिम रात्रि लगभग चार बजे जहाँ तपस्वी एक बार उनके उदर में भयंकर दर्द उठा, दर्द असह्य होता जी का संथारा बिछा था, उस कोटडी में अचानक एक दिव्य प्रकाश चला गया तब अचानक उनके मन में संकल्प उठा-“अब इस सा प्रविष्ट हुआ और कुछ ही क्षणों में धीरे-धीरे प्रकाश लुप्त हो । शरीर का कोई भरोसा नहीं है, कब रोगों का आक्रमण हो जाय। गया।
अतः कल से ही मैं बेले-बेले निरन्तर तप करूँगा।" इस वज्र संकल्प २५ अक्टूबर को मध्यान्ह में ४२ दिन के संलेखना, संथारा
का आश्चर्यकारक प्रभाव हुआ कि थोड़ी ही देर में पेट का असह्य पूर्वक उनका स्वर्गवास हो गया।
शूल शान्त हो गया। दूसरे दिन ही आपने बेले-बेले तप प्रारंभ कर
दिया, जो निरन्तर १२ वर्ष तक चलता रहा। महासती कंकुजी म. का संथारा
तप का प्रभाव पूज्य माता महासती कंकुबाई महाराज के हृदय में संथारा की प्रबल भावना थी। वे अनेक बार मुझसे कहते थे-“मैं अन्तिम समय सन् १९६५ में मेरा चातुर्मास सिकन्द्राबाद था। उस समय में संथारा के बिना नहीं चली जाऊँ। आप मुझे अवश्य सहयोग । तपस्वी रोशनलालजी म. जोधपुर में चातुर्मास कर रहे थे। उस करना। माता का जीवन ही नहीं, मरण भी मंगलमय बना देने वाला समय पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था। जोधपुर सैनिक पुत्र ही सुपुत्र होता है। इसलिए आप मेरा ध्यान रखना।" उन्होंने । दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ठिकाना था। पाकिस्तान ने जोधपुर को अपने जीवन में अनेक लम्बी-लम्बी तपस्याएँ कीं। उदर व्याधि से पीड़ित बमों का निशाना बनाया। सिकन्द्राबाद में भी जोधपुर के अनेक होने पर भी तप के प्रति मन में गहरी निष्ठा थी। अनुराग था। { लोग रहते थे। जोधपुर पर बम गिरने की बातें सुन-सुनकर वे बड़े अन्तिम समय में जब शरीर घोर व्याधि से ग्रस्त हुआ और जीवन चिन्तित हो रहे थे। एक दिन मैंने अपने प्रवचन में कहा-जोधपुर के की स्थिति डॉवाडोल लगने लगी तब आपने अत्यन्त धैर्य व साहस आसपास चाहे जितने बम गिरें, परन्तु जोधपुर शहर को कोई के साथ कहा-“अब मेरा अन्तिम समय निकट दीख रहा है, अतः खतरा नहीं हो सकता। लोगों ने पूछा-"क्यों?" मुझे दवा आदि कुछ नहीं चाहिए। सब कुछ छोड़कर अब मुझे ।
_मैंने कहा-"वहाँ तपस्वी रोशनलालजी म. का चातुर्मास है। संथारा करवा दीजिए। मेरा जीवन सफल हो जायेगा।"
जहाँ पर ऐसे घोर तपस्वी सन्त विराजमान हों, वहाँ पर शत्रु के मैंने देखा-पूज्य महासती जी का शरीर एक तर्फ व्याधि से । भयंकर प्रहार भी निष्फल हो जाते हैं।" आश्चर्य की बात है कि पीड़ित था। डॉक्टर आदि दवा के लिए आग्रह कर रहे थे। दूसरी जोधपुर पर पाकिस्तान के विमानों ने सैकड़ों बम गिराये, परन्तु तर्फ वे व्याधियों की वेदना से असंग जैसे होकर कहते हैं-"बीमारी सभी के निशाने चूकते गये, जोधपुर शहर को कुछ भी क्षति नहीं तो शरीर को है, शरीर भुगत रहा है; मेरी आत्मा तो रोग-शोक- हुई। पीड़ा से मुक्त है। अब मैं आत्मभाव में स्थित हूँ, मुझे शरीर व्याधि
तपस्वी रोशनलालजी म. का यह प्रत्यक्ष तपः प्रभाव सभी लोगों की कोई पीड़ानुभूति नहीं है, मुझे संथारा पचखा दो, मेरा मन प्रसन्न
ने अनुभव किया। है। मेरी आत्मा प्रसन्न है।"
वि. सं. १९८२ में त्रीनगर (दिल्ली) में जब वे अत्यधिक शरीर के प्रति इस प्रकार की अनासक्ति तभी होती है जब
अस्वस्थ हो गये तो शिष्यों को संकेत कर उन्होंने चौविहार संथारा साधक के मन में भेद-विज्ञान की ज्योति जल उठती है, शरीर और
पचख लिया। २ दिन के स्वल्पकालिक संथारा पूर्वक समाधिमरण आत्मा की पृथक्ता का अनुभव होने लगता है और शरीर के
प्राप्त किया। सुख-दुःख से मन असंग-अप्रभावित रहता है।
तपस्वी जी के मन में समभाव और जीवन के प्रति अनासक्ति गुप्ततपस्वी श्री रोशनलालजी म.
का जो स्वरूप मैंने देखा वह किसी विरले ही सन्त में दिखाई तपस्वी श्री रोशनलालजी म. का संथारा यद्यपि बहुत लम्बा
देता है। नहीं हुआ, किन्तु उनके जीवन में संलेखना-तप का बड़ा आश्चर्यजनक रूप देखने को मिलता है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि
तपस्वी बद्रीप्रसाद जी म. का संथारा वे गुप्त तपस्वी थे। लम्बी-लम्बी तपस्याएँ चलती रहतीं, श्रावक दर्शन तपस्वी श्री बद्रीप्रसाद जी म. का संथारा इस दशक में बहुत ही करने आते और चले जाते, परन्तु किसी को उनके दीर्घ तप का चर्चित रहा है। इस संथारे की प्रतिक्रिया लगभग सर्वत्र अच्छी पता नहीं चलता। जब पारणा हो जाता, तब लोग आश्चर्यपूर्वक प्रभावनाशील रही।
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