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संलेखना एक श्रेष्ठ मृत्युकला | ४०७ जिस प्रकार ताल का फल वृन्त से टूटकर नीचे गिर पड़ता है, उसी प्रकार आयुष्य क्षीण होने पर प्रत्येक प्राणी जीवन से च्युत हो जाता है ।
चाहे जितना बड़ा शक्तिशाली समर्थ पुरुष हो, उसे यहीं समझना चाहिए कि
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नाणागमो मच्चुमुहस्स अत्थि
अर्थात् मृत्यु का अनागम (नहीं आना) नहीं है, अर्थात् मृत्यु अवश्य ही आयेगी । यह अवश्यंभावी योग है, अपरिहार्य स्थिति है | लाख प्रयत्न करने पर भी इससे नहीं बचा जा सकता । अर्थात् प्राणी की एक मजबूरी है कि वह जन्मा है, इसलिए मरना भी होगा, फिर इससे डरना क्यों ?
जिस प्रकार एक जुलाहा (तंतुवाय) वस्त्र बनाना शुरू करता है, ताना-बाना बुनता हुआ वह दस-बीस गज का पट बना लेता है, किन्तु कहाँ तक बनाता जाएगा ? आखिर तो एक स्थिति आयेगी, जहाँ पर ताना-बाना काटकर पट को पूरा करना होगा और थान को समेटना पड़ेगा। जीवन का ताना-बाना भी इसी प्रकार चलता है । काल का जुलाहा इस पट को बुनता जाता है, किन्तु एक स्थिति अवश्य आती है, जब थान को समेटना भी पड़ेगा। थाना समेटना ही एक प्रकार की मृत्यु है । जो सुबह जगा है, उसे रात को सोना भी पड़ता है । यदि नींद न हो तो मनुष्य का क्या हाल हो ? जागरण और शयन का चक्र चलता है, वैसे ही जन्म और मृत्यु का चक्र सतत चलता है, चलता ही रहेगा । इसे कोई टाल नहीं सकेगा ।
कल्पसूत्र में वर्णन आता है कि भगवान महावीर से देवराज शक्रेन्द्र ने प्रार्थना की- "भगवन ! आपकी जन्म राशि पर भस्म ग्रह बैठा है, अतः आप अपना आयुष्य कुछ क्षण के लिए आगे बढ़ा दीजिए ।"
भगवान ने कहा, "सक्का ण एवं भूयं वा भविस्सई वा " हे शक्र ! यह न कभी हुआ और न कभी होगा कि अनन्त बली तीर्थङ्कर भी अपने आयुष्य का एक क्षण-भर भी घटा ले या बढ़ा ले । इससे यह ध्वनित होता है कि मृत्यु को सर्वथा टालना तो दूर रहा, किन्तु उसे हम एक क्षण के लिए भी टालने में समर्थ नहीं है । आयुष्य कर्म के दलिक का क्षय होने के बाद एक दलिक भी बढ़ा लेना किसी के सामर्थ्य की बात नहीं है ।
मरण-शुद्धि भी करें
तो मृत्यु का भय दूर करने के लिए पहली बात है— हम उसका यह स्वरूप समझ लें कि वह एक प्रकार से वस्त्र परिवर्तन की भाँति ही देह-परिवर्तन है - अवश्यंभावी भाव है और प्रतिक्षण मृत्यु की छाया में से गुजर रहे है, इसलिए उससे डरने की कोई बात नहीं है।
जैसे सुभट शस्त्रों से सन्नद्ध होकर अपनी सुरक्षा और विजय के सभी साधन जुटाकर यदि युद्ध में जाता है तो वह कभी डरता नहीं, उसका मन प्रफुल्लित रहता है, उत्साहित रहता है कि मेरे पास सब तैयारी है, मैं अवश्य ही विजयी बनूंगा । यात्रा पर जाता हुआ पथिक साथ में पाथेय (नाश्ता) लेकर चलता है तो उसे निश्चिन्तता रहती है। कि मेरे पास सब साधन है । जहाँ धन की जरूरत होगी, घन है, अन्न की जरूरत होगी तो अन्न है । सब साधनों से सम्पन्न होने पर यात्रा पर प्रस्थान करते समय वह अगली मंजिल के प्रति कभी भयभीत नहीं होता। इसी प्रकार जिस व्यक्ति ने जीवन के सत्कर्म, पुण्य, तप, ध्यान-योग आदि की साधना की हो, उसे परलोक की यात्रा पर प्रस्थान करते समय कभी भी भय व उद्वेग नहीं सताता। वह कहता है
गहिओ सुग्गइ मग्गो नाहं मरणस्स बीहेमि
अर्थात् मैंने सद्गति का मार्ग ग्रहण कर लिया है, जीवन में धर्म की आराधना की है। अब मैं मृत्यु से नहीं डरता। मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं है ।
वास्तव में जन्म के विषय में हम अपनी ओर से कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकते । स्थान, समय, कुल आदि सब कुछ देवायत्त - भाग्य के अधीन रहते हैं, किन्तु मृत्यु के विषय में यह नियम इतना कठोर नहीं है । जन्म कहीं भी हो, किन्तु जीवन को कैसा बनाना और मृत्यु के हम तप, ध्यान आदि के द्वारा जन्म पर न सही, किन्तु
लिए कैसी तैयारी करना - यह हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर है । मृत्यु पर अधिकार कर सकते हैं। पुरुषार्थं द्वारा जीवन-शुद्धि,
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