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जैन आगम एवं ग्रन्थों में
संलेखना (मृत्युकला) पर एक सर्वाङ्गीण अनुचितन ।
मालव केशरी मुनि श्री सौभाग्यमल जी [वयोवृद्ध संत, विद्वान् एवं प्रसिद्ध वक्ता ]
संलेखना एक श्रेष्ठ मृत्युकला :
जीवन को कैसे जीये, आनन्दपूर्वक कैसे बितायें, इसकी शिक्षा देने वाले सैकड़ों शास्त्र आज हमारे सामने हैं, हजारों युक्तियाँ खोजी गई हैं, लाखों औषधों का अनुसंधान हुआ है और होता ही जा रहा है। मनुष्य सदा-सदा से इस खोज में लगा हुआ है कि वह कैसे आनन्दपूर्वक जिये । इसलिये वह आकाश-पाताल एक करता रहा है, किन्तु जीवन का अन्तिम चरण जहाँ समाप्त होता है। उसके विषय में शायद उसने बहुत ही कम सोचा है। वह चरण है, मृत्यु । मनुष्य आनन्दपूर्वक जीने की कला तो सीखी है, लेकिन आनन्दपूर्वक मरने की कला के विषय में वह अनभिज्ञ-सा है। बहुत कम, करोड़ों में एकाध विचारशील ऋषियों ने ही इस विषय पर सोचा है कि जीवन को सुखपूर्वक जीने के बाद प्राणों को सुखपूर्वक कैसे छोड़े ? जैसे बचपन, यौवन और बुढ़ापा सुखपूर्वक बीता है, वैसे ही मृत्यु भी सुख एवं आनन्दपूर्वक
आनी चाहिए । इस विषय पर सोचना बहुत आवश्यक है, जीवन कला तभी सार्थक है, जब मृत्यु कला सीख ली हो । मनुष्य जीवन भर आनन्द करे, खान-पान में, भोग-विलास में, राग-रंग और हँसी-खुशी में समय बिताये, चिन्ता, शोक, आपत्ति क्या होती हैं ? इसका नाम भी न जाने, अर्थात् हर दृष्टि से सुख का अनुभव करे, किन्तु आखिरी समय, जब मृत्यु आ घेरती है, मौत का नगाड़ा बजता है । तब हाथ-पाँव काँपने लगे, अशांति और पीड़ा से व्यथित होकर तड़पता हुआ, विलखता हुआ, सबको धन-वैभव, भाई-बन्धु, पत्नी-पुत्र, मित्र आदि को छोड़कर चला जाय तो यह जीवन की कला, पूर्ण कला नहीं कही जा सकती, क्योंकि मृत्यु का भय और पीड़ा सम्पूर्ण जीवन के आनन्द को, चैन को यों नष्ट कर देता है, जैसे ओलों की वृष्टि का तेज प्रहार अंगूरों की लहलहाती वर्षों से देखी सँभाली खेती को चौपट कर डालता है । मृत्यु समय की व्यथा जीवन के सब आनन्द को मिट्टी में मिला देती है ।
इसलिए जीवन कला के साथ-साथ मृत्यु कला भी सीखना जरूरी है। जैसे मोटर गाड़ी का चलाना सीखने वाला उसे रोकना भी सीखता है। यदि किसी को गाड़ी चलाना तो आता हो, मगर रोकना नहीं आता हो तो उस चालक की क्या दशा होगी, चलाने की सब कला उसकी व्यर्थ । इसी प्रकार जीवन कला के साथ मृत्यु कला का सम्बन्ध है । एक कवि ने कहा है-
" जिसे मरना नहीं आया, उसे जीना नहीं आया ।"
भारतवर्ष के ऋषियों ने जितना जीवन के विषय में चिन्तन किया है, उतना ही मृत्यु के विषय में भी सोचा है । जीवन कला के साथ-साथ उन्होंने मृत्यु कला पर भी गहरा मनन किया है, और इस रहस्य को प्राप्त कर लिया है कि मृत्यु के समय हम किस प्रकार हँसते हुए शान्ति और कृतकृत्यता का अनुभव करते हुए प्राणों को छोड़ें। देहत्याग के समय हमें कोई मानसिक उद्वेग या चिन्ता न हो । किन्तु जैसे हम अपना पुराना, फटा हुआ वस्त्र उतार कर एक ओर रख देते हैं, उसी प्रकार की अनुभूति देहत्याग के समय रहे। जिस प्रकार पथ पर चलता हुआ यात्री मंजिल पर पहुँचकर विश्रान्ति का अनुभव करता है । उसी प्रकार की शान्ति और विश्रान्ति हमें देहत्याग के समय अनुभव हो । हमारी दृष्टि में शरीर त्याग - वस्त्र परिवर्तन या यात्रा की समाप्ति से अधिक कुछ नहीं है । जीवन की यह दृष्टि की मृत्यु कला है । और इस
कला को सिखाने का सबसे अधिक प्रयत्न जैन श्रमण मनीषियों ने किया है, जिसे हम 'संलेखना' या 'मारणांतिक संलेखना ' कहते हैं । प्रस्तुत लेख में हम इसी विषय पर शास्त्रीय दृष्टि से चिन्तन करेंगे ।
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