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संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
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९. संलेखना अपनी स्वेच्छा से ग्रहण करनी चाहिए। किसी के जैन आगम साहित्य, उसका व्याख्या साहित्य और जैन कथा
दबाव में आकर अथवा स्वर्ग आदि के सुखों की प्राप्ति साहित्य इतिहास में संलेखनायुक्त समाधिमरण प्राप्त करने वाले
की इच्छा से संलेखना संथारा नहीं करना चाहिए। हजारों साधक और साधिकाओं का उल्लेख है। तीर्थंकरों से लेकर १०. संलेखना करने वाला साधक मन में यह न सोचे कि
गणधर, आचार्य, उपाध्याय व श्रमण-श्रमणियां तथा गृहस्थ साधक संलेखना-संथारा लम्बे काल तक चले जिससे लोग मेरे
भी समाधिमरण को वरण करने में अत्यन्त आनंद की अनुभूति दर्शन हेतु उपस्थित हो सकें, मेरी प्रशंसा हो और यह भी
करते रहे हैं। न सोचे कि मैं शीघ्र ही मृत्यु को वरण कर लूँ। संलेखना श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी का साधक न जीने की इच्छा करता है, न मरने की। वह समाधिमरण का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। इस तरह सम्पूर्ण जैन तो सदा समभाव में रहकर संलेखना की साधना करता परम्परा समाधिमरण को महत्व देती रही है। है। उसमें न लौकषणा होती है, न वित्तैषणा होती है, न
भगवान महावीर के पश्चात् द्वादश वर्षों के भयंकर दुष्कालों में पुत्रैषणा होती है।
संयम-साधना में अनेक बाधाएँ उपस्थित होने लगी तो उन वीर संलेखना आत्म बलिदान नहीं
श्रमणों ने संलेखनायुक्त मरण स्वीकार कर ज्वलन्त आदर्श उपस्थित शैव और शाक्त सम्प्रदायों में पशु बलि की भाँति आत्म
किया। विस्तार भय से हम यहाँ प्रागैतिहासिक काल से आज तक
की सूची नहीं दे रहे हैं। यदि कोई शोधार्थी इस पर कार्य करे तो बलिदान को अत्यधिक महत्व दिया गया है। किन्तु जैन धर्म में उसका किंचित् भी महत्व नहीं है। संलेखनायुक्त समाधिमरण आत्म
उसे बहुत कुछ सामग्री सहज रूप से उपलब्ध हो सकती है। बलिदान नहीं है। आत्म बलिदान और समाधिमरण में बहुत अन्तर संलेखना और आत्मघात में अन्तर है। आत्म बलिदान में भावना की प्रबलता होती है, बिना भावातिरेक
संलेखना और आत्मघात में शरीर त्याग समान रूप से है, पर के आत्म-बलिदान नहीं होता, जबकि समाधिमरण में भावातिरेक ।
शरीर को कौन, कैसे और क्यों छोड़ रहा है? यह महत्वपूर्ण बात नहीं, किन्तु विवेक व वैराग्य की प्रधानता होती है।
है। संलेखना में वही साधक शरीर का विसर्जन करता है जिसने यदि हम श्रमण जीवन को सूर्य की उपमा से अलंकृत करें तो अध्यात्म की गहन साधना की है, भेदविज्ञान की बारीकियों से जो कह सकते हैं कि आर्हती दीक्षा ग्रहण करना श्रमण जीवन का
अच्छी तरह से परिचित है, जिसका चिन्तन स्वस्थ, सुचिन्तित है। उदयकाल है, उसके पूर्व की वैराग्य अवस्था साधक जीवन का
"मैं केवल शरीर ही नहीं हूँ, किन्तु मेरा स्वतन्त्र अस्तित्व है। शरीर उषाकाल है। जब साधक उत्कृष्ट तप जप व ज्ञान की साधना
मरणशील है और आत्मा शाश्वत् है। पुद्गल और जीव ये दोनों करता है, उस समय उसकी साधना का मध्याह्न काल होता है और पृथक्-पृथक् हैं। दोनों के अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व हैं। पुद्गल कभी जब साधक संलेखना प्रारंभ करता है, तब उसका सन्ध्याकाल होता
जीव नहीं हो सकता और जीव कभी पुद्गल नहीं हो सकता। है। सूर्योदय के समय पूर्व दिशा मुस्कुराती है, उषा सुन्दरी का दृश्य संलेखना जीव और पुद्गल जो एकमेक हो चुके हैं उसे पृथक् करने अत्यन्त लुभावना होता है। उसी प्रकार सन्ध्या के समय पश्चिम
का एक सुयोजित प्रयास है।" दिशा का दृश्य भी मन को लुभाने वाला होता है। सन्ध्या की संलेखना और आत्मघात इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है। सुहावनी लालिमा भी दर्शक के हृदय को आनंद विभोर बना देती आत्मघात करते समय व्यक्ति की मुख मुद्रा विकृत होती है, उस पर है। वही स्थिति साधक की है। उसके जीवन में भी संयम को ग्रहण तनाव होता है, उस पर भय की रेखाएं झलकती रहती हैं किन्तु करते समय जो मन में उल्लास और उत्साह होता है, वही उत्साह संलेखना में साधक की मुख-मुद्रा पूर्ण शान्त होती है, उसके चेहरे मृत्यु के समय भी होता है।
| पर किसी भी प्रकार की आकुलता-व्याकुलता नहीं होती। आत्मघात जिस छात्र ने वर्ष भर कठिन श्रम किया है, वह परीक्षा देते । करने वाले का स्नायु तंत्र तनावयुक्त होता है, जबकि संलेखना समय घबराता नहीं है। उसके मन में एक प्रकार का उत्साह होता करने वाले का स्नायु तन्त्र तनावमुक्त होता है। आत्मघात करने वाले है। वह प्रथम श्रेणी में समुत्तीर्ण भी होता है, वैसे ही जिस साधक ने
| व्यक्ति की मृत्यु आकस्मिक होती है, जबकि संलेखना करने वाले को निर्मल संयम की साधना जीवन भर की है। वह संथारे से घबराता मृत्यु जीवन दर्शन पर आधारित होती है। आत्मघात करने वाला नहीं, उसके मन में एक आनंद होता है। एक शायर के शब्दों में- जिस स्थान पर आत्मघात करना चाहता है, उस स्थान को वह
प्रकट नहीं होने देना चाहता, वह लुक-छिपकर आत्मघात करता है, "मुबारक जिन्दगी के वास्ते दुनिया का मर मिटना।
जबकि संलेखना करने वाला साधक किसी भी प्रकार उस स्थान को हमें तो मौत में भी जिन्दगी मालूम देती है।
नहीं छिपाता है, उसका स्थान पूर्व निर्धारित होता है, सभी को ज्ञात मौत जिसको कह रहे वो जिन्दगी का नाम है।
होता है। आत्मघात करने वाले की वृत्ति में कायरता है, वह अपने मौत से डरना-डराना कायरों का काम है।" कर्त्तव्य से पलायन करना चाहता है जबकि संलेखना वाले की वृत्ति
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