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________________ संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ भगवती आराधना १२८ में भी इस प्रकार के साधकों का विस्तार से वर्णन है। संलेखना के पांच अतिचार १. इहलोकाशंसा प्रयोग धन, परिवार आदि इस लोक संबंधी किसी वस्तु की आकांक्षा करना। २. परलोकाशंसा प्रयोग स्वर्ग-सुख आदि परलोक से संबंध रखने वाली किसी बात की आकांक्षा करना । ३. जीविताशंसा प्रयोग : जीवन की आकांक्षा करना। ४. मरणाशंसा प्रयोग : कष्टों से घबराकर शीघ्र मरने की आकांक्षा करना। ५. कामभोगाशंसा प्रयोग अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के रूप में काम भोगों की आकांक्षा करना। सावधानी रखने पर भी प्रमाद या अज्ञान के कारण जिन दोषों के लगने की संभावना है उन्हें अतिचार कहा है। साधक इन दोषों से बचने का प्रयास करता है। जैन परम्परा की तरह ही तथागत बुद्ध ने भी जीवन की तृष्णा और मृत्यु की इच्छा को अनैतिक माना है। बुद्ध की दृष्टि से भवतृष्णा और विभवतृष्णा क्रमशः जीविताशा और मरणाशा का धोतक है। जब तक ये आशाएँ और तृष्णाएँ चिदाकाश में मण्डराती रहती हैं, वहाँ तक पूर्ण नैतिकता नहीं आ सकती। इसलिए इनसे बचना आवश्यक है। साधक को न जीने की इच्छा करनी चाहिए, न मरने की इच्छा करनी चाहिए क्योंकि जीने की इच्छा में प्राणों के प्रति मोह झलकता है तो मरने की इच्छा में जीने के प्रति अनिच्छा व्यक्त होती. है। साधक को जीने और मरने के प्रति अनासक्त और निर्मोही होना चाहिए। एतदर्थ ही भगवान् महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा हैसाधक जीवन और मरण दोनों ही विकल्पों से मुक्त होकर अनासक्त बनकर रहे१२९ और सदा आत्मभाव में स्थित रहे। वर्तमान जीवन के कष्टों से मुक्त होने के लिए और स्वर्ग के रंगीन सुखों के प्राप्त करने की कमनीय कल्पना से जीवन रूपी डोरी को काटना एक प्रकार से आत्महत्या है। साधक के अन्तर्मानस में न लोभ का साम्राज्य होता है, न भव की विभीषिकाएं होती हैं, न मन में निराशा के बादल मंडराते हैं और न आत्म ग्लानि ही होती है। वह इन सभी द्वन्द्वों से विमुक्त होकर तथा निर्द्वन्द्व बनकर साधना करता है। उसके मन में न आहार के प्रति आसक्ति होती है और न शारीरिक विभूषा के प्रति ही उसकी साधना एकान्त निर्जरा के लिए होती है। संलेखना आत्महत्या नहीं है जिन विज्ञों को समाधिमरण के संबंध में सही जानकारी नहीं ६४५ है, उन विज्ञों ने यह आक्षेप उठाया है कि समाधिमरण आत्महत्या है । पर गहराई से चिन्तन करने पर यह स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता है कि समाधिमरण आत्म हत्या नहीं है। जिनका जीवन भौतिकता से ग्रसित है, जो जरा सा शारीरिक कष्ट सहन नहीं कर सकते, जिन्हें आत्मोद्धार का परिज्ञान नहीं है, वे मृत्यु से भयभीत होते हैं, पर जिन्हें आत्म तत्व का परिज्ञान है, जिन्हें दृढ़ विश्वास है कि आत्मा और देह दोनों पृथक हैं, उन्हें देहत्याग के समय किंचित् मात्र भी चिन्ता नहीं होती जैसे एक यात्री को सराय छोड़ते समय मन में विचार नहीं आता। समाधिमरण में मरने की किंचित् मात्र भी इच्छा नहीं होती, इसलिए यह आत्महत्या नहीं है। समाधिमरण के समय जो आहारावि का परित्याग किया जाता है, उस परित्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती, पर देह पोषण की इच्छा का अभाव होता है। आहार के परित्याग से मृत्यु हो तो सकती है, किन्तु उस साधक को मृत्यु की इच्छा नहीं है। किसी व्यक्ति के शरीर में यदि कोई फोड़ा हो चुका है, डॉ. उसकी शल्य चिकित्सा करता है। शल्य चिकित्सा से उसे अपार वेदना होती है। किन्तु वह शल्यचिकित्सा रुग्ण व्यक्ति को कष्ट देने के लिए नहीं, अपितु उसके कष्ट के प्रतीकार के लिए है, वैसे ही संथारा-संलेखना की जो क्रिया है वह मृत्यु के लिए नहीं पर उसके प्रतीकार के लिए है । ३० एक रुग्ण व्यक्ति है। डॉक्टर शल्य चिकित्सा के द्वारा उसकी व्याधि को नष्ट करने का प्रयास करता है। शल्य चिकित्सा करते समय डॉक्टर प्रबल प्रयास करता है कि रुग्ण व्यक्ति बच जाए। उसके प्रयत्न के बावजूद भी यदि रुग्ण व्यक्ति मर जाता है तो डॉक्टर हत्यारा नहीं कहलाता। इसी तरह संथारा-संलेखना में होने वाली मृत्यु आत्महत्या नहीं हो सकती। शल्य चिकित्सा दैहिक जीवन की सुरक्षा के लिए है और संलेखना संथारा आध्यात्मिक जीवन की सुरक्षा के लिए है। कितने ही समालोचक जैन दर्शन पर आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि जैन दर्शन जीवन से इकरार नहीं करता, वह जीवन से इनकार करता है। पर उनकी यह समालोचना भ्रान्त है। जैन दर्शन जीवन के मिथ्यामोह से इनकार अवश्य करता है। उसका स्पष्ट मन्तव्य है कि यदि जीवन जीने में कोई विशिष्ट लाभ है, तुम्हारा जीवन स्व और परहित की साधना के लिए उपयोगी है तो तुम्हारा कर्त्तव्य है कि सभी प्रकार से जीवन की सुरक्षा करो। श्रुतकेवली भद्रबाहु ने स्पष्ट शब्दों में साधक को कहा-"तुम्हारा शरीर न रहेगा तो तुम संयम की साधना, तप की आराधना और मनो-मंथन किस प्रकार कर सकोगे? संयम साधना के लिए तुम्हें देह की सुरक्षा का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। उसका प्रतिपालन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।३१ संयमी साधक के शरीर की समस्त क्रियाएँ संयम के लिए हैं। जिस शरीर से संयम की विराधना होती हो, मन में संक्लेश पैदा होता हो वह जीवन किस काम का ?
SR No.212096
Book TitleSanthara Sanleshna Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size15 MB
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