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संलेखना ग्रहण करने के पूर्व इस बात की जानकारी आवश्यक है कि जीवन और मरण की अवधि कितनी है। यदि शरीर में व्याधि हो गई हो पर जीवन की अवधि लम्बी हो तो साधक को संलेखना ग्रहण करने का विधान नहीं है।
दिगम्बर परम्परा के तेजस्वी आचार्य समन्तभद्र को "भस्म रोग" हो गया और उससे वे अत्यन्त पीड़ित रहने लगे। उन्होंने अपने गुरु से संलेखना की अनुमति चाही पर उनके सद्गुरुदेव ने अनुमति नहीं दी, क्योंकि उन्होंने देखा कि इनका आयु बल अधिक हैं, इनसे जिन शासन की प्रभावना होगी।
संथारे की विधि
संलेखना के पश्चात् संथारा किया जाता है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों की दृष्टि से संथारा ग्रहण विधि इस प्रकार है-सर्वप्रथम किसी निरवद्य शुद्ध स्थान में अपना आसन जमाए उसके पश्चात् वह दर्भ, घास पराल आदि में से किसी का संधारा बिछौना बिछाए फिर पूर्व या उत्तर दिशा में मुँह करके बैठे। उसके पश्चात् "अह भंते! अपच्छिम मारणातिय संलेहणा सणां आराहणाए आरोहेमि" "हे भगवान् ! अब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन एवं आराधना करता हूँ"-इस प्रकार प्रतिज्ञा ग्रहण करे। उसके बाद नमस्कार महामंत्र तीन बार, वन्दना, इच्छाकारेणं, तस्स उत्तरी करणेणं, लोगस्स का पाठ व उसके पश्चात् ऊपर का पाठ बोलकर तीर्थंकर भगवान् की साक्षी से इस व्रत को ग्रहण करे। तदुपरांत निवेदन करे कि "भगवन् ! मैं अभी से सागारी या आगाररहित संथारा-भक्तप्रत्याख्यान करता हूँ-चारों आहार का त्याग करता हूँ। अठारह पापस्थानों का त्याग करता हूँ। मनोज्ञ, इष्ट, कान्त, प्रिय, विश्वसनीय, आदेय, अनुमत, बहुमत, भाण्डकरण्डक समान, शीत-उष्ण, क्षुधा पिपासा आदि मिटाकर सदा जतन किया हुआ, हत्यारे, चोरादि से, डांस मच्छर आदि से रक्षा किया हुआ, व्याधि, पित्त, कफ, वात, सन्निपातिक आदि से भी बचाया हुआ विविध प्रकार के स्पर्शो से सुरक्षित, श्वासोच्छ्वास की सुरक्षा प्राप्त इस शरीर पर मैंने जो अब तक मोह ममत्व किया था, उसे अब मैं अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता हूँ, मुझे कोई भी चिन्ता न होगी। क्योंकि अब यह शरीर धर्म पालन करने में समर्थ न रहा, बोझ रूप हो गया, आतंकित या अत्यन्त जीर्ण, अशक्त हो गया।"
उपासक दशांग में आनंद श्रमणोपासक बहुत वर्षों तक गृहस्थ जीवन में सुखों का उपभोग करते रहे। जीवन की सान्ध्यबेला में वे स्वयं पोषधशाला में जाते हैं और दब्द संचारयं संबरई दर्भ का संथारा बिछाते हैं। धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर विविध तप कार्यों द्वारा उपासक प्रतिमाओं की आराधना करते हुए शरीर को कृश करते हैं। जिसे हम संथारा कहते हैं, वह अनशन का द्योतक है। आगम साहित्य में संथारा का अर्थ "दर्भ का बिछौना" है। "संलेखना " शब्द का प्रयोग "मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सठि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता" इस सूत्र रूप में किया जाता है।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
" प्रवचनसारोद्धार" में लिखा है-साधक द्वादशवर्षीय उत्कृष्ट संलेखना करके तदनन्तर कन्दरा, पर्वत, गुफा या किसी निर्दोष स्थान पर जाकर पादपोपगमन या भक्तप्रत्याख्यान या इंगिणीमरण को धारण करे । १२०
सारांश यह है कि संलेखना के पश्चात् संथारा ग्रहण किया जाता था। यदि कोई आकस्मिक कारण आ जाता तो संलेखना के बिना भी संथारा ग्रहण कर समाधिमरण को वरण किया जाता था। संथारा-संलेखना का महत्व
संथारा-संलेखना करने वाला साधक धर्मरूपी अमृत को पान करने के कारण संसार के सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है तथा निःश्रेयस् और अभ्युदय के अपरिमित सुखों को प्राप्त करता है। १२१ पंडित आशाधरजी ने कहा है-जिस महासाधक ने संसार परम्परा को सम्पूर्ण रूप से उन्मूलन करने वाले समाधिमरण को धारण किया है, उसने धर्मरूपी महान् निधि को परभव में जाने के लिए साथ ले लिया है। इस जीव ने अनन्त बार मरण प्राप्त किया किन्तु समाधि सहित पुण्यमरण नहीं हुआ। यदि समाधि सहित पुण्यमरण होता तो यह आत्मा संसाररूपी पिंजड़े में अभी भी बन्द होकर नहीं रहता । १२२ भगवती आराधना १२३ में कहा है- जो जीव एक ही पर्याय में समाधिपूर्वक मरण करता है, वह सात आठ पर्याय से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता। आचार्य समन्तभद्र ने १२४ कहा है-जीवन में आचरित तपों का फल अन्त समय में गृहीत संलेखना है।
" मृत्यु महोत्सव" में लिखा है जो महान् फल बड़े-बड़े व्रती, संयमी आदि को कायक्लेश आदि उत्कृष्ट तप तथा अहिंसा आदि महाव्रतों को धारण करने से प्राप्त नहीं होता वह फल अन्त समय में समाधिपूर्वक शरीर त्यागने से प्राप्त होता है ।१२५
"गोम्मटसार १२६ में आचार्य नेमिचन्द्र ने शरीर के त्याग करने के तीन प्रकार बताए हैं-च्युत, च्यावित और व्यक्त । अपने आप आयु समाप्त होने पर शरीर छूटता है वह च्युत है, विषभक्षण, रक्तक्षय, धातुक्षय, शास्त्राघात, संक्लेश, अग्निदाह, जल प्रवेश प्रभृति विभिन्न निमित्तों से जो शरीर छूटता है, यह व्यायित है। रोग आदि समुत्पन्न होने पर तथा असाध्य मारणांतिक कष्ट व उपसर्ग आदि उपस्थित होने पर विवेकयुक्त समभावपूर्वक जो शरीर त्याग किया जाता है, वह त्यक्त है । त्यक्त शरीर ही सर्वश्रेष्ठ है। इसमें साधक पूर्ण जागृत रहता है। उसके मन में संक्लेश नहीं होता। इसी मरण को संथारा, समाधिमरण, पंडितमरण, संलेखनामरण प्रभृति विविध नामों से कहा गया है।
आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर कड़ाई स्थविरों का वर्णन है। वे संथारा-संलेखना करने वाले साधकों के साथ पर्वत आदि पर जाते हैं और जब तक संथारा करने वाले का संथारा पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक वे स्वयं भी आहारादि ग्रहण नहीं करते। १२७