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________________ संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला संथारा, संलेषना : एक चिन्तन 20 05888 PAGE -आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी जीवन और मरण जीवन के पश्चात् मृत्यु निश्चित है। मृत्यु जब आती है तब भारत के मूर्धन्य मनीषियों ने जीवन और मरण के संबंध में अपनी गंभीर गर्जना से जंगल को कंपाने वाला वनराज भी कांप गंभीर अनुचिन्तन किया है। जीवन और मरण के संबंध में हजारों जाता है। मदोन्मत्त गजराज भी बलि के बकरे की तरह करुण स्वर ग्रन्थ लिखे गये हैं। जीवन सभी को प्रिय है और मरण सभी को में चीत्कार करने लगता है। अनन्त सागर में कमनीय क्रीड़ा करने अप्रिय है। वाली विराटकाय व्हेल मछली भी छटपटाने लगती है। यहाँ तक कि मौत के वारन्ट से पशु-पक्षी और मानव ही नहीं स्वर्ग में रहने वाले "जब कोई भी व्यक्ति जन्म ग्रहण करता है तब चारों ओर देव-देवियां व इन्द्र और इन्द्राणियाँ भी पके पान की तरह कांपने प्रसन्नता का सुहावना वातावरण फैल जाता है। हृदय का अपार लगते हैं। जैसे ओलों की तेज वृष्टि से अंगूरों की लहलहाती खेती आनंद विविध वाद्यों के द्वारा मुखरित होने लगता है। जब भी कुछ क्षणों में नष्ट हो जाती है वैसे ही मृत्यु जीवन के आनंद को उसका वार्षिक जन्म दिन आता है तब वह अपने सामर्थ्य के मिट्टी में मिला देती है। अनुसार समारोह मनाकर हृदय का उल्लास अभिव्यक्त करता है। जीवन को आनंद के सुमधुर क्षणों में व्यतीत करने के लिए गीर्वाण गिरा के यशस्वी कवि ने कहा-जो जन्म लेता है वह गुरुजनों से वह आशीर्वचन प्राप्त करना चाहता है। वैदिक ऋषि प्रभु अवश्य ही मरता है-"जातस्य हि मरणं ध्रुवम्"। तन बल, जन से प्रार्थना करता है कि मैं सौ वर्ष तक सुखपूर्वक जीऊँ। मेरे तन बल, धन बल और सत्ता बल के आधार से कोई चाहे कि मैं मृत्यु में किसी भी प्रकार की व्याधि उत्पन्न न हो। मेरे मन में संकल्प- से बच जाऊँ यह कभी भी संभव नहीं है। आयु कर्म समाप्त होने विकल्प न हों। मैं सौ वर्षों तक अच्छी तरह से देखता रहूँ, सुनता । पर एक क्षण भी जीवित रहना असंभव है। काल (आयु) समाप्त रहूँ, सूंघता रहूँ, मेरे पैरों में मेरी भुजाओं में अपार बल रहे जिससे होने पर काल (मृत्यु) अवश्य आयेगा। बीच कुए में जब रस्सी टूट मैं शान्ति के साथ अपना जीवन यापन कर सकूँ।" . गई हो, उस समय कौन घड़े को थाम सकता है ?३ । मानव में ही नहीं, प्रत्येक प्राणी में जिजीविषा है। जिजीविषा । मृत्यु का भय सबसे बड़ा की भव्य भावना से उत्प्रेरित होकर ही प्रागैतिहासिक काल से जैन साहित्य में भय के सात प्रकार बताये हैं। उन सभी में मृत्यु आधुनिक युग तक मानव ने अनुसंधान किए हैं। उसने ग्राम, नगर, का भय सबसे बड़ा है। मृत्यु के समान अन्य कोई भय नहीं है। भव्य भवनों का निर्माण किया। विविध प्रकार के खाद्य पदार्थ, पेय पदार्थ, औषधियां, रसायनें, इंजेक्शन, शल्य क्रियाएं आदि निर्माण ____एक बादशाह बहुत मोटा ताजा था। उसने अपना मोटापा कम की। मनोरंजन के लिए प्राकृतिक सौंदर्य सुषमा के केन्द्र संस्थापित करने के लिए उस युग के महान् हकीम लुकमान से पूछा-"मैं किस किये। उद्यान, कला केन्द्र, साहित्य, संगीत, नाटक, चलचित्र, प्रकार दुबला हो सकता हूँ? टेलीविजन, टेलीफोन, रेडियो, ट्रेन-प्लेन, पृथ्वी की परिक्रमा करने लुकमान ने बादशाह से कहा-आप भोजन पर नियंत्रण करें, वाले उपग्रह आदि का निर्माण किया। अब वह चन्द्र लोक आदि व्यायाम करें और दो-चार मील घूमा करें। ग्रहों में रहने के रंगीन स्वप्न देख रहा है। बादशाह ने कहा-जो भी तुमने उपाय बताये हैं, मैं उनमें से पर यह एक परखा हुआ सत्य तथ्य है कि जीवन के साथ मृत्यु एक भी करने में समर्थ नहीं हूँ। न मैं भोजन छोड़ सकता हूँ, न का चोली-दामन का संबंध है। जीवन के अगल-बगल चारों ओर व्यायाम कर सकता हूँ और न घूम ही सकता हूँ। मृत्यु का साम्राज्य है। मृत्यु का अखण्ड साम्राज्य होने पर भी मानव उसे भुलाने का प्रयास करता रहा है। वह सोचता है कि मैं कभी लुकमान कुछ क्षणों तक चिन्तन करते रहे, फिर उन्होंने कहानहीं मरूँगा किन्तु यह एक ज्वलन्त सत्य है कि जो पुष्प खिलता है, बादशाह प्रवर। आपके शारीरिक लक्षण बता रहे हैं कि आप एक महकता है, अपनी मधुर सौरभ से जन-जन के मन को मुग्ध करता माह की अवधि के अन्दर परलोक चले जायेंगे। है वह पुष्प एक दिन मुरझा जाता है। जो फल वृक्ष की टहनी पर यह सुनते ही बादशाह ने कहा-क्या तुम्हारा कथन सत्य है? लगता है, अपने सुन्दर रंग रूप से जन मानस को आकर्षित करता है, वह फल भी टहनी पर रहता नहीं, पकने पर नीचे गिर पड़ता लुकमान ने स्वीकृति सूचक सिर हिला दिया। है। सहस्ररश्मि सूर्य जब उदित होता है तो चारों ओर दिव्य आलोक एक माह के पश्चात् जब लुकमान बादशाह के पास पहुँचा तो जगमगाने लगता है, पर सन्ध्या के समय उस सूर्य को भी अस्त । उसका सारा शरीर कृश हो चुका हो चुका था। बादशाह ने लुकमान होना पड़ता है। से पूछा-अब मैं कितने घण्टों का मेहमान हूँ। 2P0902DDO 000000 5 Poo 200 29000 0.0.00 RSTणतातताणतताक्पताल PADADADDO360000 Pomnp.DODD06:060010060Vasheese Br/soso666DSDHORD 000000000000000000
SR No.212096
Book TitleSanthara Sanleshna Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size15 MB
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