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रोताल (विताल ) - जिसके ध्वनि एवं शारीर में नानादेशीयरीतियां (स्वरव्यवहारप्रकार ) प्राप्त होते हैं वह रीताल
कहा जाता है । "
सुगन्ध - विषम तथा प्रांजल प्रकार के गान प्रबंधों का चिरकाल तक गाते हुए भी जिसके कंठ का माधुर्य क्षीण नहीं होता सुगन्ध कहते हैं। यह गुणप्रकार वास्तव में सुशारीरध्वनि से संयुक्त व्यक्ति में प्रबन्धगान निष्णातता, वश्यकण्ठत्व, हृद्यशब्दत्व आदि गुणों की समष्टिरूप में उपस्थिति की कल्पना है-ऐसा मानना उचित होगा ।
उसे
अनियम — यद्यपि आचार्य पार्श्वदेव ने अनियम का परिगणन तो किया है परन्तु उपलब्ध ग्रन्थ में इसका विवरण नहीं दिया गया है । फिर भी सभी गुणों का तात्त्विक दृष्टि से विचार करने पर अनियम से यह समझा जा सकता है कि जो गायक किसी निश्चित गायन प्रकार ( प्रबंध, जाति, आलप्ति आदि) के भीतर बंधा न रहे तथा समय एवं वाताबरण के अनुसार गायनरस आदि का विचार करके राग एवं गायन प्रकार का चयन करे वह अनियम से अभिहित किया जाना चाहिये (स्वमत ) ।
चौपट - शुद्ध एवं छायालग श्रेणी के रागों में आलप्तिपूर्वक गीत गा सकने वाला ।'
निबन्ध - ध्वनि में (गायनकाल में ) विभिन्न गतिमार्गों का चिन्तन करने वाला। इससे निश्चित रूप से जो गायन समय में विभिन्न लयों का प्रदर्शन करता है तथा विभिन्न छन्द जिसके गायन से कट कट कर उभर रहे हों यही शब्द संगीतज्ञों तथा रसिकों में प्रयुक्त किया जाता है) ।
मिश्र - बिना किसी दोष का अवकाश दिये जो एक राग में अन्य राग की छाया को मिश्रित कर सकता है वह अत्यन्त चातुर्ययुक्त गायक मिश्र के नाम से जाना जाता है।" यहां यह ध्यातव्य है दोषवर्णन प्रकरण में सभी आचार्यों में मिश्रक नाम से अघम गायक की कल्पना की है। मिश्रत्व नामक गुण एवं मिश्रकत्व नामक दोष होता है, यह यहां स्पष्ट करना आवश्यक है। दोनों की प्रक्रिया में कोई अन्तर नहीं है। अपितु मिश्रण की कोटि का अन्तर है। यदि मिश्रण इतना अधिक कर दिया जाय कि मूलराग की अपेक्षा मिश्रित, राग प्रधान हो जाय तो वह गर्हणीय दोष है परन्तु यदि राग में रागान्तर की छायामात्र चातुर्य से मिश्रित करके रसिक, श्रोतृवृन्द को चमत्कृत कर दिया जाय तो वह मिश्रण एक प्रशस्य गुण होगा ।
स्त्रियों में इन सभी गुणों अथवा वर्ण्य-दोषों को यथावत् कल्पना करके आचार्य पार्श्वदेव उनमें कुछ अतिरिक्त विशेषताओं को अत्यन्त मुखरित लेखनी से निरूपित करते हुए कहते हैं कि,
भावार्थ यह है कि (आधुनिक काल में
"पुरुषों एवं स्त्रियों की प्रधानता का निर्णय करते समय यह निश्चित जान लेना चाहिये कि गायन में सदा ही स्त्रियों का प्राधान्य है तथा पुरुष तो अपवादरूपेण स्त्रियों से अधिक प्रशस्य हो सकते हैं। स्त्रियों की चेष्टाएं प्रीतिकर होती हैं, उनकी गानपाठादि क्रियाओं में विस्वरता नहीं होती तथा अङ्गविचेष्टित एवं कंठमाधुर्य भी स्त्रियों में ही स्वभावतः विद्यमान रहता है जबकि पुरुषों में सर्वविधसौष्ठव व्यायाम एवं अभ्यास के नित्यकरण तथा नैरन्तर्य से अर्जित होता है इसलिये स्त्रियों में पुरुषाश्रित प्रयोग बाहुल्य से करने चाहियें । इसी प्रसंग में आदिभरत के मत का भी उल्लेख किया गया है। जिसके अनुसार विशेष बात यह है कि यदि स्त्रियों में वाद्य अथवा पाठ गुण तथा पुरुषों में गान- मधुरत्व दिखाई दें तो यह समझना चाहिये कि यह उनका अलङ्कारभूत गुण है न कि स्वाभाविक । " प्रायः देखा गया है कि देवमन्दिर, पार्थिव, सेनापति तथा मुख्य-मुख्य अन्य पुरुषों के भवनों में पुरुषविहित एवं स्त्री संचालित प्रयोग होते हैं।'
१. संगीतसमयसार, ६. ७०-७१.
२. वही, ६.६६-६७.
३. वही, ६.६६-७०.
४. वही, ६.७१-७२.
५. वही, C. ७३.
६. वही, ६. १०६ १०७.
७. वही, ६ ११२-११५.
८. वही, ६. १०५.
६. वही, ६.१११.
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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