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(१) रूपस्विता, (२) यौवन, (३) माधुर्यधुरीणता, (४) चतुराई, (५) चतुरप्रियात्व, ।' तभी गायिकाए उत्तम कही जा सकती हैं।
इन ग्राह्य गुणों की पूर्वाचार्यपरम्परानुसार परिगणना के पश्चात् आचार्य पार्श्वदेव के द्वारा स्वीकृत गुणगणना का विवेचन करने पर हम यह पाते हैं कि प्राय: इन्हीं, कुछ इनसे अतिरिक्त तथा कुछ इन्हीं में से अन्य नामों से गुण आचार्य पार्श्वदेव ने स्वीकार किये हैं । उदाहरणार्थ
क्रियापरत्व, सूघटत्व, भावकत्व, शिक्षाकारत्व, रसिकत्व, रंजकत्व, ग्रहमोक्षदक्षता, स्थानत्रयप्रयोगदक्षता, विविधालप्ति
जना गम्भीरमधरध्वनित्व, रागरागाङ्गव्यवहारकोशल, जितधमत्व, वश्यकण्ठत्व, अवधारणाशक्तिमत्व, सपाध्यायप्राप्त(ससंप्रदायत्व) आदि कुछ गण दोनों ओर समान रूप में प्राप्त हैं, जबकि निम्न विशेषताएं संगीतसमयसार में अधिक गिनाई * सरेखता, क्रमस्थत्व, गतिस्थत्व, सुसंचत्व, पररीतिज्ञत्व, रीतालत्व (वितालत्व), सुगन्धत्व, अनियमत्व, चौपटत्व, विबन्धत्व. तो इन अतिरिक्त विशेषताओं का वर्णन करना अत्यन्त आवश्यक है :
सरेखता-संभवत: विविधस्वरसमूहों (स्थायों) के प्रयोग के द्वारा श्रोतृचित्त में विभिन्न प्रकार के रेखाचित्र उत्पन्न कर
वामन्दर रेखा अर्थात शरीर वाला होना अर्थात् नेवानन्दकारक शरीर वाला होना ही सुरेखता से अभिप्रेत है क्योंकि आचार्य पावंदेव ने इसका मात्र परिगणन ही किया है, विवरण नहीं दिया है।
श्रमस्थल-उत्तमोत्तमसूड आदि सर्वविधसूडों को क्रमश: प्रतिरूपक पर्यन्त गाने की क्षमता होना । इस लेख में प्रबन्ध का वर्णन करते हए उसके तीन भेद कहे गए हैं-सूडस्थ, आलिसंश्रय, विप्रकीर्ण । सूड का लक्ष ण निम्न प्रकार से किया जाता है
एला, करण, ढेङ की, वर्तनी, झोम्बड, लम्भ, रासक, एकताली; इन आठ प्रकार के गायन प्रबंधों को सूड के नाम से अभिहित किया जाता है।
अन्य आचार्यों द्वारा अनिर्गदित एक विशिष्ट वर्गीकरण प्रस्तुत करते हुए आचार्य पार्श्वदेव ने सूड के पांच भेद कहे हैं । (१) अतिजघन्य, (२) जघन्य, (३) मध्यम, (४) उत्तम तथा (५) अत्युत्तम अथवा उत्तमोत्तम । विस्तारभय से इन सबका संख्यापन मात्र किया जा रहा है। इन सभी प्रकार के सूडस्थ प्रबंधों को रूपक (प्रबंध के एक भेद) तक गाने की क्षमता रखने वाला क्रमस्थ कहलाता है।'
गतिस्थ-कण्ठ के वश में होने के कारण जो गायक सर्वाधिक गमकों को पृथक्-पृथक लक्षणानुसार प्रदर्शित कर सके।
ससंच-प्रशस्य-शारीर ध्वनि का स्वामी होने के कारण तत्तद्रागों की आलप्ति करने में समर्थ जो गायक अनायास ही गीत को जान लेता है वह सुसंच कहलाता है।
परीतिज्ञ-गीत तथा शरीर ध्वनि की चेष्टाओं का आलप्ति में अनुकरण करने वाला एवं गीत सम्बन्धी उत्तम गुणों वाला पररीतिज्ञ कहलाता है ।
१. संगीतरत्नाकर प्रकीर्णकाध्याय-२४. २. वही, प्रबन्धाध्याय, २३-२४. ३. संगीतसमय सार, ५. ६०-६२. ४. वही, ६. ५७, ५८. ५. वही, ६. ५८, ५६. ६. वही, ६. ६०-६१. ७. वही, ६. ६५-६६.
जैन प्राच्य विद्याएँ
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