SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ व्यापक सामान्य अनेक द्रव्योंमें मोतियोंमें सूतकी तरह पिरोया हुआ नहीं है। जिन द्रव्योंमें जिस रूपसे सादृश्य प्रतीत होता है, उन द्रव्योंका वह सामान्य मान लिया जाता है । वह केवल बुद्धिकल्पित भी नहीं है, किन्तु सादृश्य रूपसे वस्तुनिष्ठ है; और वस्तुकी तरह ही उत्पादविनाशध्रौव्यशाली है । समवाय सम्बन्ध है । यह जिनमें होता है उन दोनों पदार्थोंकी ही पर्याय है । ज्ञानका सम्बन्ध आत्मामें माननेका यही अर्थ है कि ज्ञान और उसका सम्बन्ध आत्माकी ही सम्पत्ति है, आत्मासे भिन्न उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। कोई भी सम्बन्ध अपने सम्बन्धियोंकी अवस्थारूप ही हो सकता है। दो स्वतन्त्र पदार्थोमें होनेवाला संयोग भी दोमें न रहकर प्रत्येकमें रहता है, इसका संयोग उसमें और उसका संयोग इसमें । याने संयोग प्रत्येकनिष्ठ होकर भी दोके द्वारा अभिव्यक्त होता है। विशेष पदार्थको स्वतन्त्र माननेकी आवश्यकता इसलिए नहीं है कि जब सभी द्रव्योंका अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है, तब उनमें विलक्षणप्रत्यय भी अपने निजी व्यक्तित्वके कारण ही हो सकता है । जिस प्रकार विशेष पदार्थों में विलक्षण प्रत्यय उत्पन्न करनेके लिए अन्य विशेष पदार्थों की आवश्यकता नहीं है, वह स्वयं उनके स्वरूपसे ही हो जाता है, उसी तरह द्रव्योंके निजरूपसे ही विलक्षणप्रत्यय मानने में कोई बाधा नहीं है। इसी तरह प्रत्येक द्रव्यकी पूर्वपर्याय उसका प्रागभाव है, उत्तरपर्याय प्रध्वंसाभाव है, प्रतिनियत निजस्वरूप अन्योन्याभाव है और असंसर्गीयरूप अत्यन्ताभाव है । अभाव भावान्तररूप होता है, वह अपने में कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । एक द्रव्यका अपने स्वरूपमें स्थिर होना ही उसमें पररूपका अभाव है । एक ही द्रव्यकी दो भिन्न पर्यायोंमें परस्पर अभाव-व्यवहार कराना इतरेतराभावका कार्य है और दो द्रव्योंमें परस्पर अभाव अत्यन्ताभावसे होता है । अतः गुणादि पृथक् सत्ता रखनेवाले स्वतन्त्र पदार्थ नहीं हैं, किन्तु द्रव्यकी ही पर्यायें हैं । भिन्न प्रत्ययके आधारसे ही यदि पदार्थोकी व्यवस्था की जाय; तो पदार्थों की गिनती करना ही कठिन है। इसी तरह अवयवी द्रव्यको अवयवोंसे जुदा मानना भी प्रतीतिविरुद्ध है। तन्तु आदि अवयव ही अमुक आकारमें परिणत होकर पटसंज्ञा पा लेते हैं । कोई अलग पट नामका अवयवी तन्तु नामक अवयवोंमें समवाय-सम्बन्धसे रहता हो, यह अनुभवगम्य नहीं है; क्योंकि पट नामके अवयवीकी सत्ता तन्तुरूप अवयवोंसे भिन्न कहीं भी और कभी भी नहीं मालम होती । स्कन्ध अवस्था पर्याय है, द्रव्य नहीं। जिन मिट्टीके परमाणुओंसे घड़ा बनता है, वे परमाणु स्वयं घड़ेके आकारको ग्रहण कर लेते हैं । घड़ा उन परमाणुओंकी सामुदायिक अभिव्यक्ति है । ऐसा नहीं है कि घड़ा पृथक् अवयवी बनकर कहींसे आ जाता हो, किन्तु मिट्टी, के परमाणुओंका अमुक आकार, अमुक पर्याय और अमुक प्रकारमें क्रमबद्ध परिणमनोंकी औसतसे ही घटके रूपमें हो जाता है और घटव्यवहारकी संगति बैठ जाती है। घट-अवस्थाको प्राप्त परमाण द्रव्योंका अपना निजी स्वतन्त्र परिणमन भी उस अवस्थामें बराबर चाल रहता है। यही कारण है कि घटके अमुक-अमुक हिस्सोंमें रूप, स्पर्श और टिकाऊपन आदिका अन्तर देखा जाता है । तात्पर्य यह कि प्रत्येक परमाणु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और स्वतन्त्र परिणमन रखनेपर भी सामुदायिक समान परिणमनकी धारामें अपने व्यक्तिगत परिणमनको विलीन-सा कर देता है और जब तक यह समान परिणमनकी धारा अवयवभूत परमाणुओंमें चाल रहती है, तब तक उस पदार्थकी एक-जैसी स्थिति बनी रहती है । जैसे-जैसे उन परमाणुओंमें सामुदायिक धारासे असहयोग प्रारम्भ होता है, वैसे-वैसे उस सामुदायिक अभिव्यक्तिमें न्यूनता, शिथिलता और जीर्णता आदि रूपसे विविधता आ चलती है । तात्पर्य यह कि मूलतः गुण और पर्यायोंका आधार जो होता है वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212088
Book TitleShaddravya Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages29
LanguageHindi
ClassificationArticle & Six Substances
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy