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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३०३ बौद्ध-परंपरामें हृदय-वस्तुको एक पृथक् धातु माना है', जो कि द्रव्यमनका स्थानीय हो सकता है । 'अभिधर्मकोश' में छह ज्ञानोंके समानान्तर कारणभूत पूर्वज्ञानको मन कहा है । यह भावमनका स्थान ग्रहण कर सकता है, क्योंकि चेतनात्मक है। इन्द्रियाँ मनकी सहायताके बिना अपने विषयोंका ज्ञान नहीं कर सकतीं, परन्त मन अकेला ही गणदोषविचार आदि व्यापार कर सकता है। मनका कोई निश्चित विषय नहीं है, अतः वह सर्वविषयक होता है। गुण आदि स्वतन्त्र पदार्थ नहीं वैशेषिकने द्रव्यके सिवाय गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये छह पदार्थ और माने है । वैशेषिककी मान्यता प्रत्ययके आधारसे चलती है। चूंकि 'गुणः गुणः' इस प्रकारका प्रत्यय होता है, अतः गुण एक पदार्थ होना चाहिए । 'कर्म कर्म' इस प्रत्ययके कारण कर्म एक स्वतन्त्र पदार्थ माना गया है। 'अनुगताकार, प्रत्ययसे पर और अपर रूपसे अनेक प्रकारके सामान्य माने गये हैं । 'अपृथसिद्ध' पदार्थोके सम्बन्ध स्थापनके लिए 'समवाय' की आवश्यकता हुई । नित्य परमाणुओंमें, शुद्ध आत्माओंमें, तथा मुक्त ओंके मनोंमें परस्पर विलक्षणताका बोध करानेके लिए प्रत्येक नित्य द्रव्यपर एक विशेष पदार्थ माना गया है। कार्योत्पत्तिके पहले वस्तुके अभावका नाम प्रागभाव है । उत्पत्तिके बाद होनेवाला विनाश प्रध्वंसाभाव है । परस्पर पदार्थोंके स्वरूपका अभाव अन्योन्याभाव और कालिक संसर्गका निषेध करनेवाला अत्यन्ताभाव होता है । इस तरह जितने प्रकारके प्रत्यय पदार्थों में होते हैं, उतने प्रकारके पदार्थ वैशेषिकने माने हैं। वैशेषिकको 'सम्प्रत्ययोपाध्याय' कहा गया है। उसका यही अर्थ है कि वैशेषिक प्रत्ययके आधारसे पदार्थकी कल्पना करनेवाला उपाध्याय है। परन्तु विचारकर देखा जाय तो गुण, क्रिया, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये सब द्रव्यकी पर्यायें ही हैं । द्रव्यके स्वरूपसे बाहर गुणादिको कोई सत्ता नहीं है । द्रव्यका लक्षण है गुणपर्यायवाला होना । ज्ञानादिगुणोंका आत्मासे तथा रूपादि गुणोंका पुद्गलसे पृथक् अस्तित्व न तो देखा ही जाता है, और न युक्ति सिद्ध ही है । गुण और गुणीको, क्रिया और क्रियावान्को, सामान्य और सामान्यवान्को, विशेष और नित्य द्रव्योंको स्वयं वैशेषिक अयुतसिद्ध मानते हैं, अर्थात् उक्त पदार्थ परस्पर पृथक नहीं किये जा सकते । गुण आदिको छोड़कर द्रव्यकी अपनी पृथक् सत्ता क्या है ? इसी तरह द्रव्यके बिना गुणादि निराधार कहाँ रहेंगे? इनका द्रव्यके साथ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है। इसीलिए कहीं "गुणसन्द्रावो द्रव्यम्" यह भी द्रव्यका लक्षण मिलता है। एक ही द्रव्य जिस प्रकार अनेक गुणोंका अखण्ड पिण्ड है, उसी तरह जो द्रव्य सक्रिय है उनमें होनेवाली क्रिया भी उसी द्रव्यकी पर्याय है, स्वतंत्र नहीं है। क्रिया या कर्म क्रियावानसे भिन्न अपना अस्तित्व नहीं रखते। इसी तरह पृथ्वीत्वादि भिन्न द्रव्यवर्ती सामान्य सदृशपरिणामरूप ही हैं । कोई एक, नित्य और १. ताम्रपर्णीया अपि हृदयवस्तु मनोविज्ञानधातोराश्रयं कल्पयन्ति ।" -स्फुटार्थ अभि०, पृ० ४९ । २. "षण्णामनन्तरातीतं विज्ञानं यद्धि तन्मनः ।"-अभिधर्मकोश १ । १७ । ३. "गुणपर्ययवद्रव्यम् ।"-तत्त्वार्थसूत्र ५। ३८ । ४. "अन्वर्थ खल्वपि निर्वचनं गुणसन्द्रावो द्रव्यमिति ।"-पात० महाभाष्य ५ । १ । ११९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212088
Book TitleShaddravya Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages29
LanguageHindi
ClassificationArticle & Six Substances
File Size3 MB
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