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२९४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
(५) सूक्ष्म-जो सूक्ष्म होनेके कारण इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण न किये जा सकते हों, वे कर्मवर्गणा आदि सूक्ष्म स्कन्ध हैं।
(६) अतिसूक्ष्म-कर्मवर्गणासे भी छोटे द्वयणुक स्कन्ध तक सूक्ष्मसूक्ष्म है ।
परमाणु परमातिसूक्ष्म है । वह अविभागी है । शब्दका कारण होकर भी स्वयं अशब्द है, शाश्वत होकर भी उत्पाद और व्ययवाला है यानी त्रयात्मक परिणमन करनेवाला है। स्कन्ध आदि चार भेद
पदगल द्रव्यके स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु ये चार विभाग भी होते हैं । अनन्तानन्त परमाणुओंसे स्कन्ध बनता है, उससे आधा स्कन्धदेश और स्कन्धदेशका आधा स्कन्धप्रदेश होता है। परमाणु सर्वतः अविभागी होता है। इन्द्रियाँ, शरीर, मन, इन्द्रियोंके विषय और श्वासोच्छवास आदि सब कुछ पुद्गल द्रव्यके ही विविध परिणमन हैं। बन्धकी प्रक्रिया
इन परमाणुओंमें स्वाभाविक स्निग्धता और रूक्षता होनेके कारण परस्पर बन्ध होता है, जिससे स्कन्धोंकी उत्पत्ति होती है। स्निग्ध और रूक्ष गुणोंके शक्त्यंशकी अपेक्षा असंख्य भेद होते हैं, और उनमें तारतम्य भी होता रहता है। एक शक्त्यंश ( जघन्यगुण ) वाले स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओंका परस्पर बन्ध ( रासायनिक मिश्रण ) नहीं होता। स्निग्ध और स्निग्ध, रूक्ष और रूक्ष, स्निग्ध और रूक्ष, तथा रूक्ष और स्निग्ध परमाणुओंमें बन्ध तभी होगा, जब इनमें परस्पर गुणोंके शक्त्यंश दो अधिक हों, अर्थात् दो गुणवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणुका बन्ध चार गुणवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणुसे होगा । बन्धकालमें जो अधिक गुणवाला परमाणु है, वह कम गुणवाले परमाणुका अपने रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूपसे परिणमन करा लेता है। इस तरह दो परमाणुओंसे द्वयणुक, तीन परमाणुओंसे त्र्यणुक और चार, पाँच आदि परमाणुओंसे चतुरणुक, पञ्चाणुक आदि स्कन्ध उत्पन्न होते रहते हैं । महास्कन्धोंके भेदसे भी दो अल्पस्कन्ध हो सकते हैं । यानी स्कन्ध, संघात और भेद दोनोंसे बनते हैं। स्कन्ध अवस्थामें परमाणुओंका परस्पर इतना सूक्ष्म परिणमन हो जाता है कि थोड़ी-सी जगहमें असंख्य परमाणु समा जाते हैं। एक सेर रूई और एक सेर लोहेमें साधारणतया परमाणुओंकी संख्या बराबर होनेपर भी उनके निविड और शिथिल बन्धके कारण रूई थलथली है और लोहा ठोस । रूई अधिक स्थानको रोकती है और लोहा कम स्थानको । इन पुद्गलोके इसी सूक्ष्म परिणमनके कारण असंख्यातप्रदेशो लोकमें अनन्तानन्त परमाणु समाए हुए है । जैसा कि पहले
१. 'खंधा या खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणू । इति ते चदुब्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा ।'
-पञ्चास्तिकाय गा० ७४-७५ । २. "शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ।"
-तत्त्वार्थसूत्र ५/१९ । ३. "स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः । न जघन्यगुणानाम् । गुणसाम्ये सदृशानाम् । द्वयधिकादिगुणानां तु । बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ।"
-तत्त्वार्थसूत्र ५।३३-३७ ।
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