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षड्जीव निकाय - सुरक्षा ही पर्यावरण- सुरक्षा
दर्शन दिग्दर्शन
जैन दर्शन का मौलिक प्रतिपादन है - षटजीवनिकाय । भ. महावीर ने २५०० वर्ष पूर्व प्रतिपादित किया कि सकाय ( चलते फिरते जीवों की तरह स्थावरकाय - पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु व वनस्पतिकाय में भी आत्मसत्ता है। हिंसा-अहिंसा की सूक्ष्मतम विवेचना को एक बार छोड़ दें तो भी मानव जीवन को सुरक्षित रखने हेतु षटजीव निकाय की सुरक्षा करना अत्यंत आवश्यक है । प्रकृति का संतुलन, पर्यावरण-क्षुद्रतम त्रस-स्थावर जीवों के अस्तित्व पर ही निर्भर है। उनका हनन, अपने आपका हनन है। आचारांग सूत्र का सूक्त है – “तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि" - जिसका तू हनन करना चाहता है, वह ओर कोई नहीं, तू स्वयं है - अर्थगंभीर इस एक वाक्य में पर्यावरण संरक्षण का संपूर्ण रहस्य छुपा हुआ है ।
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आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व वैज्ञानिक यंत्रों के सर्वथा अभाव में स्फटिक सम ज्ञान से साक्षात देखकर सर्वज्ञ महावीर ने कहा था - पानी की एक बूंद तथा सूई की नोक टिके जितनी वनस्पतिकाय में असंख्य अनंत जीव होते हैं । वे श्वासोच्छवास लेते हैं, हर्ष-शोक के संवेदनों से युक्त होते हैं। आज उक्त सत्य को पुष्ट करने वाले वैज्ञानिक तथ्य सामने आ रहे हैं - इलाहाबाद गवरमेंट प्रेस में छपी - 'सिद्ध पदार्थ विज्ञान' नामक पुस्तक में कैष्टन स्कोर्सबि ने एक पानी की बूंद में खुर्दबीन से ३६४५० जीव देखे । भारत के वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र वसु ने प्रयोगों से सिद्ध कर दिया कि पेड़ पौधों में भी पशु-पक्षी व मनुष्यों की तरह जीवन होता है। वे हर्ष-शोक से अनुप्राणित और शत्रु-मित्र व मानापमान के प्रति संवेदनशील होते हैं । परीक्षण हेतु वैज्ञानिकों ने दो पौधे रोपे, एक पौधे की वे प्रतिदिन खूब तारीफ करते, पुचकारते, सहलाते, खूब फलने फूलने का आशीर्वाद देते । दूसरे को प्रतिदिन कोसते, दुत्कारते, अभिशाप की भाषा में कहते - तू फलेगा फूलेगा नहीं,
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- मुनि धर्मचन्द "पीयूष"
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