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षट्त्रिंशत् वाद- विजेता श्रीजिनपतिसूरि
[ महोपाध्याय विनयसागर ]
मणिधारी श्री जिन चन्द्रसूरिजी के पट्टधर षटत्रिंशत् वाद विजेता श्रीजिनपतिसूरि का जन्म वि० सं० १२१० विक्रमपुर में मालू गोत्रीय यशोवर्द्धन की धर्मपत्ती सुहवदेवी की रत्नकुक्षि से हुआ था । सं० १२१७ फाल्गुन शुल्क १० को जिनचन्द्रसूरि के कर कमलों से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम नरपति था । सं० १२२३ कार्तिक शुक्ल १३ को बड़े महोत्सव के साथ युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि के पादोपजीवी जयदेवाचार्य ने इनको आचार्य पद प्रदान कर जिनचंद्रसूरि के पट्टधर गणनायक घोषित किया। आचार्य पद के समय नाम जिनपतिसूरि प्रदान किया। वह महोत्सव जिनपतिसूरि के चाचा मानदेव ने किया था ।
सं० १२२८ में विहार करते आशिका पधारे। आशिका के नृपति भीमसिंह भी प्रवेशोत्सव में सम्मिलित हुए थे । आशिका स्थित महा प्रामाणिक दिगम्बर विद्वान को शास्त्रार्थ में पराजित किया था ।
सं० १२३६ कार्तिक शुक्ल ७ के दिन अजमेर में अन्तिम हिन्दू सम्राट् पृथ्वीराज चौहान की अध्यक्षता में फलवद्धिका नगरी निवासी उपकेश गच्छीय पद्मप्रभ के साथ आपका शास्त्रार्थ हुआ । इस समय राज्य में महामंत्री मण्डलेश्वर कैमा तथा वागीश्वर, जनार्दन गौड़, विद्यापति आदि प्रमुख विद्वान उपस्थित थे । प्रतिवादी पद्मप्रभ मूर्ख, अभिमानी एवं अनर्गल प्रलापी होने से शास्त्रार्थ में शीघ्र ही पराजित हो गया । जिनपतिसूरिकी प्रतिभा एवं सर्वशास्त्रों असाधारण पाण्डित्य देखकर पृथ्वीराज चौहान बहुत प्रसन्न हुए और विजयपत्र हाथी के हौदे पर रखकर बड़े आडम्बर के साथ उपाय में आकर आचार्य श्री को प्रदान किया ।
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सं० १२४४ में उज्जयन्त शत्रुञ्जयादि तीर्थों की यात्रार्थं संघ सहित प्रयाण करते हुए आचार्यश्री चन्द्रावती पधारे। यहां पर पूर्णिमापक्षीय प्रामाणिक आचार्य श्री अकलङ्कदेवसूरि पांच आचार्य एवं १५ साधुओं के साथ संघ दर्शनार्थ आये | आचार्य श्री के साथ अकलङ्कदेवसूरि की 'जिनपति' नाम एवं संघ के साथ साधु-साध्वियों को जाना चाहिये या नहीं, इन प्रश्नों पर शास्त्रचर्चा हुई और आचार्य अकलंक इस चर्चा में निरुत्तर हुए ।
इसी प्रकार कासहृद में पौर्णमासिक तिलकप्रभसूर के साथ 'संघपति' तथा 'वाक्यशुद्धि पर चर्चा हुई जिसमें जिनपतिसूरि ने विजय प्राप्त की ।
उज्जयन्त शत्र जय) दि तीर्थों की यात्रा करके वापिस लौटते हुए आशापल्ली पधारे। यहां वादिदेवाचार्य परम्प
प्रद्युम्नाचार्य के साथ 'आयतन - अनायतन' पर शास्त्रार्थ हुआ जिसमें प्रद्युम्नाचार्य पराजय को प्राप्त हुए । इस शास्त्रार्थ का अध्ययन करने के लिये प्रद्युम्नाचार्य का 'वादस्थल' तथा जिनपतिसूरि का "प्रबोधोदय वादस्थल" ग्रन्थ द्रष्टव्य है |
आशापल्ली से आचार्यश्री अहिल्लपुर पाटण पधारे । यहां पर अपने गच्छ के ४० आचार्यों को अपनो मण्डली में मिलाकर वस्त्रप्रदान पूर्वक सम्मानित किया ।
सं० १२५१ में लवणखेटक में राणक केल्हण के आग्रह से 'दक्षिणावर्त आरात्रिकावतरणोत्सव बड़ी धूम-धाम से
मनाया ।
सं० १२७३ में वृहद्वार में नगरकोटीय राजाधिराज पृथ्वी चन्द्र की सभा में काश्मीरी पंडित मनोदानन्द के साथ
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