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२२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशी घर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ समाधान-इसी (९३३) ऋषिप्रणीत आगमसूत्रसे जाना जाता है और इसी (९३३) ऋषिप्रणीत
आगमसूत्रसे यह भी जाना जाता हैं कि द्रव्यस्त्रियोंके मोक्ष नहीं होता है। शंका-द्रव्यस्त्रियोंको मोक्ष तो सिद्ध हो सकता है ? समाधान नहीं, क्योंकि वस्त्रसहित होनेसे वे संयतासंयत गुणस्थानमें स्थित रहती हैं, इसलिये
उनके संयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । पाठक देखेंगे, कि दोनों प्रकारका हिन्दी अनुवाद उत्तरोत्तर तीन शंका-समाधानों में विभक्त है। इनमेंसे पं० रामप्रसादजी शास्त्री द्वारा धवलाटीकाकी मुद्रित वाक्ययोजनाको बदल कर किये गये अनुवादके पहले शंकासमाधानरूप भागसे हम भी सहमत हैं क्योंकि हुण्डावसपिणीकालदोष के प्रभावसे परंपराविरुद्ध कार्य तो हो सकते हैं परन्तु उनसे करणानुयोग और द्रव्यानुयोग द्वारा निर्णीत सिद्धान्तोंका अपलाप नहीं हो सकता है, कारण संपूर्ण काल, संपूर्ण क्षेत्र, सम्पूर्ण द्रव्य और सम्पूर्ण अवस्थाओंको ध्यानमें रखकर करणानुयोग और द्रव्यानुयोग द्वारा निॉन सिद्धान्तोंपर कालविशेष, क्षेत्रविशेष, द्रव्यविशेष और अवस्थाविशेषका प्रभाव नहीं पड़ सकता है । इसलिये जब करणानुयोगका यह नियम है कि कोई प्राणी सम्यग्दर्शनकी हालतमें मर कर स्त्रियोंमें उत्पन्न नहीं होता है तो हुण्डावसर्पिणोकालका दोष इसका अपवाद नहीं हो सकता है। इस प्रकार पं० रामप्रसादजी शास्त्रीके साथ-साथ हमारी भी यह मान्यता है कि मुद्रित प्रतिमें धवलाटीकाके इस अंशको वाक्ययोजना निश्चित करने और उसका हिन्दी अनुवाद करनेमें गलती कर दी गई है और पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार भी अपने अनुवादमें उस गलतीको दुहरा गये। परन्तु आगे पं० रामप्रसादजी शास्त्रीने मुद्रित प्रतिमें स्वीकृत धवला टीकाके 'द्रव्यस्त्रीणां निर्वतिः' इस वाक्यांशके स्थानपर 'न' पद जोड़कर 'द्रव्यस्त्रीणां न निर्वृतिः' इस वाक्यांशको स्वीकार करके वाक्ययोजना बदलने और उस बदली हई वाक्ययोजनाके आधारपर हिन्दी अनुवाद करनेका जो प्रयास किया है उसमें एक तो अनुवाद करते समय अधिक खींचातानी करनी पड़ी है, दूसरे उनके अभिप्रायकी पुष्टिके लिये इसे हम उनका द्रावड़ीय प्राणायामका अनुसरण कह सकते हैं और तीसरे उनका यह प्रयास निरर्थक भी है।
___ इनमेंसे अनुवाद करते समयकी खींचातानी तो यहाँपर स्पष्ट ही है क्योंकि धवलाटीकाके इस अंशका जो अभिप्राय अनुवादद्वारा पं० रामप्रसादजी शास्त्री निकालना चाहते हैं उसके अनुकूल वाक्यरचनाका धवलाटीकामें अभाव है। यदि 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां न निवृतिः' इस वाक्यको सिद्धान्तपरक मानकर सिर्फ 'सिद्धघेत' इस क्रियारूप वाक्यको ही आक्षेपपरक माना जाय तो वाक्यरचनामें अधूरेपनका अनुभव होने लगता है जो कि अनुचित है।
___ द्रावड़ीय प्राणायामका अनुसरण हम इसलिये कहना चाहते हैं कि पं० रामप्रसादजी शास्त्री 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां न निर्वृतिः' इस वाक्यसे उक्त ९३वें सूत्रमें 'संयत' पदके अभावके आधारपर दिगंबर संप्रदायको मान्य 'द्रव्यस्त्रियोंकी मुक्तिका अभाव' प्रस्थापित करना चाहते हैं और 'सिद्धयेत्' इस वाक्यसे क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्ररूपणाओंके अन्तर्गत मनुष्यप्ररूपणाके आधारपर दिगम्बर संप्रदायको उक्त मान्यतापर आक्षेप उपस्थित करना चाहते है, जिसका समाधान 'सवासत्वात्-' आदि पंक्ति द्वारा किया गया है। लेकिन इस विषयमें हमारा कहना यह है कि यदि पं० रामप्रसादजी शास्त्रीको यह अर्थ अभीष्ट है तो इसके लिये 'द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः'के स्थानपर 'द्रव्यस्त्रीणां न निवृतिः' इस पाठको मान कर एक ही वाक्यमें दो वाक्योंकी कल्पना करनेके कष्ट साध्य प्रयत्नके करनेकी उन्हें क्या जरूरत है ? क्योंकि 'अस्मादेवार्षाद' इस वाक्यांशको सूत्रपरक न मानकर यदि सूत्रोंके समूहरूप ग्रन्थपरक मान लिया जाय और इसका अर्थ इसी
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