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५/साहित्य और इतिहास : २१
रखा गया है। आज यदि इसका स्पष्टीकरण किया जाता है तो बहुत कछ सम्भव है कि ये दोनों विद्वान भी अपनी-अपनी जिदपर अड़ सकते है। इसलिये विषयके निर्णयके लिये सीधा और उपयुक्त मार्ग यही है कि विद्वत् परिषद् कुछ चुने हुए विद्वानोंकी एक उपसमिति कायम करे | हम आशा करते हैं विद्वत् परिषद्का ध्यान हमारे इस सुझावकी ओर अवश्य जायगा।
पं० मक्खनलालजी व पं० रामप्रसादजो शास्त्रीके ऊपर निर्दिष्ट अनुवाद-भेदका स्पष्टीकरण तथा उक्त सूत्रमें 'संयत' पदकी आवश्यक्ता ओर अनावश्यक्तापर विचार किया जायेगा।
पहले किये गये संकेतके अनुसार यहाँपर हम शीर्षकके अन्तर्गत निर्दिष्ट सूत्रकी धवलाटीकाके पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार और पं० रामप्रसादजी शास्त्री द्वारा किये गये परस्पर-भिन्न हिन्दी अनुवादोंपर विचार करते हुए सूत्र में 'संयत' पदको आवश्यक्ता और अनावश्यक्तापर यहाँ अपना विचार प्रकट करेंगे ।
धवलाटीकाका वह मूल अंश, जिसके हिन्दी अनुवादमें उक्त उभय विद्वानोंका मतभेद बतलाया गया है, मुद्रित प्रतिमें निम्न प्रकार पाया जाता है
"हुण्डावसर्पिण्या स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, उत्पद्यन्ते । कुतोऽवसीयते ? अस्मादेवार्षात् । अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः सिद्धयेदिति चेन्न, सवासस्त्वादप्रत्याख्यान
गुणास्थितानां संयमानुपपत्तेः ।” इसका हिन्दी अनुवाद मुद्रित प्रतिमें निम्न प्रकार पाया जाता हैशंका-हुण्डावसर्पिणी काल संबन्धी स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं । शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी आगम प्रमाणसे जाना जाता है। शंका-तो इसी आगमप्रमाणसे द्रव्यस्त्रियोंका मुक्ति जाना भी सिद्ध हो जायगा ? समाधान-नहीं, क्योंकि वस्त्रसहित होनेसे उनके संयतासंयत गुणस्थान होता है, अतएव उनके
संयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। पं० मक्खनलालजीने धवलाटीकाके उक्त अंशका हिन्दी अनुवाद करते हए मद्रित प्रतिके इस अनुवादको पूर्णतः सही माना है, परन्तु पं० रामप्रसादजी शास्त्रीने वाक्यविन्यासको गलतीके आधारपर इस अनुवादको ग़लत माना है और अपना भिन्न ही अभिप्राय प्रकट किया है । उनकी दृष्टिके अनुसार इस अंशकी स्थिति निम्न प्रकार है
“हुण्डावसपिण्यां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेत् नोत्पद्यन्ते । कुतोऽवसीयते ? अस्मादेवार्षात्, अस्मांदेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां न निवृतिः । सिद्धयेदिति चेन्न, सवासस्त्वादप्रत्याख्यानगुणस्थितानां संयमानुपपत्तेः ।" मद्रित प्रतिके उक्त अंशसे इसमें एक तो वाक्यविन्यासकी विशेषता है और दूसरे 'द्रव्यस्त्रीणां निर्वतिः'
र 'द्रव्यस्त्रीणां न निर्बतिः' ऐसा पाठभेद स्वीकार किया गया है तथा इसका जो हिन्दी अनुवाद पं० रामप्रसादजीको मान्य है उसको निम्न प्रकारसे प्रकट किया गया है
शंका-हण्डावसर्पिणीकालदोषके प्रभावसे स्त्रियोंमें सम्यग्दष्टि जीव क्या नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान नहीं उत्पन्न होते है । शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
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