________________ श्वेताम्बर जैन साहित्य की कुछ अनुपलब्ध रचनायें मोक्षाय धर्मसिद्धयर्थ, शरीरं धार्यते यथा। शरीरधाराणार्थ च, भैक्षग्रहणमिष्यते // तथैवोपग्रहार्थाय, पात्रं चीवरमिष्यते / जिनैरुपग्रहः साधोरिष्यते न परिग्रहः॥ जिस कृति से ये श्लोक लिये गये हैं, वह या तो विलुप्त है अथवा अभी तक मिल नहीं पाई है।' वाचक सिद्धसेन प्रसिद्ध वादी सिद्धसेन दिवाकर से सर्वथा भिन्न जान पड़ते हैं। इनकी कृति में शैली-भेद और विषय की भिन्नता स्पष्ट है। यदि यह सिद्धसेन जीतकल्पचूणि तथा निशीथमूल-चूणि के रचयिता सिद्धसेन क्षमाश्रमण नहीं हैं तो इन्हें कोई अन्य अज्ञात आगमिक विद्वान् माना जा सकता है। इनकी लेखन-शैली ६ठी-७वीं शताब्दो के बाद की नहीं प्रतीत होती। साथ हो वाचक पदवी भी ६ठी शताब्दी के पश्चात् देखने में नहीं आती। प्रस्तुत लेख में केवल चार ही प्राचीनकर्ताओं की लुप्त रचनाओं के सम्बन्ध में विचार किया गया है। भविष्य में ऐसी ही कुछ अन्य विनष्ट एवं विलुप्त कृतियों के सम्बन्ध में विचार किया जायेगा। अमेरिकन इन्स्टीट्यूट आफ इण्डियन स्टडीज, -रिसर्च डाइरेक्टर, रामनगर, वाराणसी 1. विलुप्त मानी जाने वाली कृतियाँ बाद में मिल गई हों, ऐसे बहुत उदाहरण हैं / 2. यह पदवी मध्यकाल में पुनर्जीवित की गई थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org