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पण्डरभिक्खुओंके विषयमें इसके आगे और भी विवरण मिलता है । "नागदेवेण भणियं । वच्छ, इम चेव भिक्खुत्तणं । पडिस्सुयमणेण । साहिओसे गोरसपरिवज्जणाइओ निययकिरियाकलावो । परिणओ य एयस्स । अइक्कंत कइवि दियहा । दिन्ना य से दिक्खा करेइ विहियाणुठाणं” (पृ० ५५३)।
यहाँ प्रथम अवतरणमें उल्लिखित जिस नागदेवने पण्डरभिक्खुके रूपमें दीक्षा ली, उसीके विषयमें यह बताया गया है कि वह इसके पूर्व अपनी वाग्दत्तासे मिलने गया था। इसके बाद उसका आगेका विवरण निम्न है :
“वियलिओ झाणासओ उल्लसिओ सिगेहो, 'समासम समाससत्ति अन्भुक्खिया कमंडलु पाणिएअ" (पृ० ५५४)।
इन अवतरणोंमें यह पता चलता है कि इन भिक्षुओंके क्रियाकलापमें गोरस आदिका परित्याग सम्मिलित था और ये भिक्षु अपने साथ कमंडलु रखते थे। यह वर्णन श्वेताम्बर साधुओंकी चर्चासे मेल नहीं खाता।
जैन छेदसूत्र निशीथसूत्रकी चूणिमें (सातवों सदी) इस बातका स्पष्ट निर्देश है कि पण्डरभिक्षु गोशालकके शिष्य थे । ये महावीरके समकालीन आचार्य गोशालक द्वारा संस्थापित आजीवक सम्प्रदायके थे : आजीवगा गोसालसिस्सा पंडरभिक्खुआ वि भणंति ।
(विजयप्रेमसूरिजीकी आवृत्ति, ग्रन्थ ४, पृ० ८६५) जैन आगम-साहित्यमें पण्डरभिक्खुके पर्यायवाचीके रूपमें पण्ड-रङ्ग (संस्कृत-पाण्डुरागं, श्वेतवस्त्र) . शब्दका प्रयोग मिलता है । महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित अनुयोग द्वार सूत्रके सूत्र क्रमांक २२८ में निम्न उद्धरण मिलता है :
से किं ते पासण्डनामे ? पंचविहे पण्णत्ते ।
तं जहा समणये पंडरंगए भिक्खू , कावलियए तावसये ।। इस सूत्रकी चूर्णिमें पण्डरङ्गका पर्यायवाची ससरक्ख (सरजस्क धूलियुक्त) आता है । मुनिश्री कल्याण विजयजीने अपनी श्रमण भगवान महावीर नामक पुस्तकमें प० २८१ पर यह अनुमान लगाया है कि सम्भवतः आजीवक नग्न भिक्षु होते थे । वे सम्भवतः अपने शरीर पर कोई भस्म या श्वेतधूलि लगाया करते थे। इसीलिए इन्हें पण्डरङ्ग या ससरक्ख कहा गया है। अनुयोगद्वार सूत्रके टीकाकार मलधारी हेमचन्द्रने उपरोक्त विवरणकी व्याख्यामें लिखा है कि आजीवक साधु श्रमण ही होते थे और पांडुरङ्ग आदि अनेक प्रकारके भिक्षु पाखण्ड या अजैन मतके अनुयायी होते थे। इन्होंने अपनी यह टीका बारहवीं सदीमें लिखी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि पाखण्ड विषयक अनेक परम्परायें उनके समय तक समाप्त हो चुकी होंगी। लेकिन गोशालकके अनुयायी आजीवक भाग्यसे कहीं दृष्टिगोचर होते होंगे । यह भी सम्भव है कि पण्डरङ्ग शब्दकी व्याख्याके सम्बन्धमें मलधारी हेमचन्द्रके मनमें कुछ भ्रान्ति रही हो। लेकिन यहाँ हमारे लिए महत्वकी बात यह है कि उन्होंने पण्डरङ्गको पाखण्ड या अजैन माना है ।
जैन आगम ग्रन्थोंके ओघनियुक्तिके भाष्यमें भी पण्डुरङ्ग शब्दका उपयोग मिलता है। जब कोई जैन साधु चातुर्मासके लिए किसी ग्राम-नगरमें प्रवेश करता है, तब उस समयके अपशकुनोंके सम्बन्धमें ग्रन्थकारने लिखा है :
चक्कयरम्मि भमाडो, भुक्कामारो य पंडुरंगमि । तच्चिन्नअ रुहिरपडनं, बोडिअमसिये धवं मरणं ।।
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