Book Title: Shwet Bhikshu
Author(s): Bhogilal J Sandesara
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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________________ श्वेत भिक्षु भोगीलाल जे० सांडेसरा; बड़ौदा (गुजरात) बम्बई संस्कृत सीरीजसे प्रकाशित पश्चिम भारतीय पंचतन्त्रके तन्त्र ३ का श्लोक ७६ निम्न है : नराणां नापितो धूर्तः, पक्षिणां वायसस्तथा । दंष्ट्रीनां च श्रृगालस्तु, श्वेतभिक्षुस्तपस्विनाम् ॥३-७६।। अर्थात् मनुष्यों में नाई, पक्षियोंमें कौआ, दाढ़वाले प्राणियोंमें शृगाल, तथा तपस्वियोंमें श्वेतभिक्षु धूर्त होता है। पञ्चतन्त्रके प्रायः सभी अनुवादकोंने श्वेत भिक्षुका अर्थ श्वेताम्बर जैन साधु किया है । कुछ वर्ष पूर्व गुजराती साहित्य परिषद्ने पञ्चतन्त्रकी सभी उपलब्ध प्रतियोंके पाठोंके आधार पर उसका एक उपोद्धात और तुलनात्मक टिप्पणी सहित गुजराती अनुवाद प्रकाशित किया था। उस समय भी मुझे लगा था कि श्वेत भिक्षका यह अर्थ ठीक नहीं लगता। पश्चिम भारतीय पञ्चतन्त्र प्रायः जैन पाठ-परम्परा पर आधारित है, यह बात उपोद्घात (पृ० २६-२९) में बताई गई है। इसीलिए इसमें श्वेताम्बर जैन साधुका उल्लेख आना कठिन ही था। हार्वर्ड ओरियन्टल सीरीज द्वारा प्रकाशित पूर्णचन्द्र कृत पंचाख्यानके तन्त्र ३ श्लोक ६६ में भी इसीके अनुरूप पाठ दिया गया है : नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः । चतुष्पदां शृगालस्तु, श्वेतभिक्षुस्तपस्विताम् ॥३-७७॥ यह पूर्णभद्र खरतरगच्छीय जैन साधु जिनपति सूरिके शिष्य थे। इन्होंने पञ्चतन्त्रका ११९९ में पञ्चाख्यानके रूपमें रूपान्तर किया था । अब प्रश्न यह है कि श्वेतभिक्षु शब्दका क्या अर्थ है ? पंचाख्यानकी शब्दसूचीमें उसके सम्पादक डा० हर्टले टांकेलाने बताया है कि याकोबीके मतानुसार श्वेतभिक्षु वह है जिसका उल्लेख हरिभद्रसूरिकृत गद्य कथा समराइच्चकहा (आठवीं सदी) में पंडरभिक्षु (सं०, पांडुर भिक्ष)के रूपमें किया गया है। अपने व्यक्तिगतपत्र व्यवहारमें डा० हर्टलेने डॉ० याकोबीका यही मत पुष्ट किया है। यद्यपि उन्होंने 'समराइच्चकहा में इस शब्दके उपयोगका निश्चित स्थान नहीं बताया है क्योंकि पञ्चाख्यानका प्रकाशन १९०८ में हुआ था जबकि याकोबी सम्पादित समराइच्चकहा (बिम्बिलयोथेका इण्डिका ग्रन्थांक १६९) का प्रकाशन १९२६ में हआ। इससे स्पष्ट है कि श्वेत भिक्ष और पंडरभिक्खु-दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । 'समराइच्चकहा में पंडरभिक्खुका उल्लेख निम्न प्रकारसे किया गया है : दिठ्ठो या णण पियवयंसओ नागदेवो नाम पंडरभिक्खू वन्दिओ सविणयं । कहवि पञ्चभिन्नाओ भिक्खुणा (पृ० ५५२) -२०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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