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________________ किया है। व जो समो सव्वभूएस, तसेसु धावरे तस्स सामाइयं होई, इह केवली भासिये ४९ (क) इसी प्रकार जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में तल्लीन है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा " है जस्स समाणिओ अप्पा, संजमें गिअमे तस्स सामाइयं होइ, इह केवली भासियं इस सामायिक की साधना दुर्लभ है। कहा जाता है कि देवता लोग भी अपने हृदय में यह विचार करते हैं कि यदि एक मुहूर्त मात्र भी हमें सामायिक की सामग्री मिल जाये तो हमारा देवत्व सफल हो जाये। १. २. सामायिक के अन्य नाम भी हैं : सामायिक समभाव सामयिक ३. सम्यग्वाद ४. समास ५. संक्षेप ६. ७. ८. सामाइयसामरिंग देवावि चिर्तति हियय मज्झमि । जड़ होइ मुहूत्तमेगें, तो अह् देवतंणं सहलं ॥ ५० सामायिक करने वाले दो प्रकार के होते हैं: १. ऋद्धिमन्त और ऋद्धि रहित अऋद्धिवान लोग तो मुनियों के पास जिन मन्दिर में पोषधशाला उपाश्रय स्थानक में अपने घर पर अथवा कोई भी निर्विघ्न स्थान पर सामायिक करे और जो ऋद्धिमन्त पुरुष हैं वे साडम्बर उपाश्रय आकर सामायिक करे, ताकि जिन शासन की प्रभावना भी हो। तवे । यद्यपि सामायिक समता की साधना है, किन्तु गृहस्थ जीवन में पूर्वतया समभाव होना दुष्कर है। अतः उसके लिये समय की सीमा निर्धारित कर दी गयी। एक सामायिक का काल ४८ मिनिट है। श्रावक को एकाधिक सामायिक करनी चाहिए। यदि अधिक न कर सके तो एक दिन में एक सामायिक तो अवश्यमेव करनी चाहिए। सामायिक करने के लिए प्रातः काल एवं सायंकाल विशेष उचित है। श्रावक जहां सामायिक करे, वह स्थान एकान्त, पवित्र शान्त एवं अनुकूल होना चाहिए। सामायिक या पोषध करते समय आसन, मुखवस्त्रिका, चरवला / मोरपीसी स्थापनाचार्य आदि सामग्री का सामान्यतः उपयोग होता है। ॥ अनवद्य परिज्ञा- पाप ४९ (ख) पापरहित आचरण । परिहार से वस्तु बोध | प्रत्याख्यान- त्याज्य वस्तुओं का त्याग। समग्र जीवों पर दयापूर्वक वर्तन । राग-द्वेष रहित सत्य कथन। Jain Education International अल्प अक्षरों में कर्म विनाशक तत्वावबोध । अल्प अक्षरों में गम्भीर द्वादशांगी। श्रीमद जयसेनसर अभिनंदना उक्त अष्ट सामायिकों पर आठ दृष्टांत भी हैं जिनके लिये द्वादश पर्व- व्याख्यानमाला आदि ग्रन्थ अवलोकनीय है। ५१ ११/३ अतिथि संविभाग व्रत अतिथये - विभजनम् - अतिथिसंविभाग - अतिथि के लिए आहार, पानी कक्ष आदि का संविभाग करना अतिथि संविभाग व्रत है। शास्त्र इस व्रत को दान के अन्तर्गत भी लेते हैं। दान अनुग्रह का परिचायक है, किन्तु संविभाग सेवा का द्योतक है। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में कहा गया है कि यथाजात रूप के धारक व्यक्ति के लिये विधिपूर्वक नवधा भक्ति के साथ आहारादि द्रव्य विशेष का स्व और पर के अनुग्रह निमित्त अवश्य ही विभाग करें इसे अतिथि संविभाग नामक शिक्षावत कहते हैं। विधिना दातृगुणवता द्रव्यविशेषस्य जा तरपाया । स्वपरानुग्रहहेतोः, कर्तव्योऽवश्यमतिथये भागः ॥ ५२ उद्गम आदि दोषों से रहित देशकालानुकाल, शुद्ध अन्नादिक का उचित रीति से दान देना गृहस्थों का अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत अन्नाईणं सुद्धाणं कप्पणिज्जाण देसकालजुतं । दाणं जईणेमुचियं गिहीण सिक्खावयं भणियं ॥ ५३ योगशास्त्र में भी यही कहा गया है कि अतिथियों को चार प्रकार का आहार अर्थात अशन, पान खादिम स्वादिम भोजन, पात्र वस्त्र और मकान देना अतिथि संविभाग व्रत कहलाते हैं :दानं चतुर्विधाहारपात्राच्छादनसद्मनाम् । अतिथिभ्यो तिथिसंविभागव्रतमुदीरितम् ॥ पोषधोपवास- व्रत ५४ पोष + ध = पोषध, पोष यानी गुण की दृष्टि को धारण करने वाला “पोषध” कहलाता है। अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों में द्वेष निवृत्ति पूर्वक आहार त्यागादि गुणों सहित निवास करना - उपवास कहलाता है। पूर्वाचार्यों के अनुसार दोष से निवृत्त होकर गुणों सहित सम्यक् प्रकार से रहना उपवास है, गुणरहित करने को पौषधोपवास कहते है : उपावृत्तस्य दोषेभ्यः सम्यग्वासो गुणै सह । उपवासः स विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् ॥ 44 आहार शरीर सुश्रुषा गृह व्यापार एवं मैथुन इन चार बातों का पौषधोपवास व्रत में परित्याग किया जाता है। पंचास्तिकाय के अनुसार आहारदेहसक्कार-बंभा वावार पोसहो य णं । ५६ देसे सव्वे य इमं चरमे सामाइयं णियमा ॥ अर्थात आहार, शरीर संस्कार अब्रह्म तथा आरम्भ त्याग ये चार बातें पौषधोपवास व्रत में आती है। इन चारों का त्याग एकदेश भी होता है और सर्वदेश भी जो सम्पूर्णतः पौषध करता है, उसे नियमतः सामायिक करनी चाहिए। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में यह विधान है कि प्रत्येक मास की दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इन चारों ही पर्वों में अपनी शक्ति न छिपाकर सावधानी पूर्वक पौषधोपवास करने वाला पौषधनियम विधायी श्रावक कहलाता है। पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि, मासे मासे स्वशक्तिमनिबुह् । प्रोषधनियमाविधावी प्रणाधिपरः प्रोषधानशनः ॥ ५७ २५ For Private & Personal Use Only 'य' का भेद विष विषय में, विष मारे इक बार । जयन्तसेन विषय सदा, हनन करे.. wellorary.org.
SR No.212057
Book TitleShravak ke Dwadash Vrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherZ_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
Publication Year
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size5 MB
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