Book Title: Shravak ke Dwadash Vrat Author(s): Chandraprabhsagar Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf View full book textPage 1
________________ व्रत श्रावकाचार का आधारभूत तत्व है। अनैतिक आचार से विरति ही व्रत है। तत्वार्थसूत्र में लिखा है कि हिंसानृतास्त्येया ब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्वतम् अर्थात हिंसा, असत्य, अचौर्य मैथुन व परिग्रह से विरति व्रत है। व्रत वस्तुतः वह धार्मिक कृत्य या प्रतिज्ञा है, जिसके पालन से व्यक्ति अशुभ से मुक्त होता है एवं शुभ तथा शुद्धत्व की यात्रा करता है। जैनागमों में श्रावक के १२ व्रतों का वर्णन किया गया है, जिनका विभाजन इस प्रकार है। १. पाँच अणुव्रत, २. तीन गुणव्रत और ३. चार शिक्षा व्रत गुणवतों और शिक्षावतों को समवेत रूप में शीलव्रत भी कहा जाता हैं। तत्वार्थसूत्र में अणुव्रतों को ही श्रावक का व्रत कहा है। शीलव्रत को मूल व्रत न कहकर अणुव्रतों के पालन में सहायक बताया गया है। जबकि श्रावकधर्म प्रज्ञप्ति में लिखा है पंचे अणुब्वयाई गुणव्ययाई चहुंति तिन्नेव सिक्खावयाइं चउरो, सावगधम्मो दुवालसहा ।' अर्थात श्रावक-धर्म पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत - यों बारह प्रकार का है। योगशास्त्र में भी यही वर्णित है : श्रावक के द्वादश व्रत (महोपाध्याय श्रीचन्द्रप्रभसागरजी महाराज) सम्यक्त्वमूलानि, पन्चाणुव्रतानि गुणास्यः । शिक्षापदानि चत्वारि, व्रतानि गृहमेधिनाम् ॥ ३ अणुव्रत जिनेन्द्र देव ने दो करण, तीन योग, आदि से स्थूल हिंसा और दोषों के त्याग की अहिंसा आदि को पांच अणुवत कहा है विरतिं स्थूलहिंसादेर्द्विविधत्रिविधादिना । अहिंसादीनि पन्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः ॥ आतुरप्रत्याख्यान में अणुव्रतों के संबंध में लिखा है पाणिवहमुसावाए, अदत्तपरदारनियमणेहिं च अपरिमिइच्छाओ वि य, अणुव्वयाई विरमणांई' अर्थात प्राणि-वध (हिंसा), मृषावाद (असत्य वचन), अदत वस्तु का ग्रहण (चोरी) परस्त्री सेवन ( कुशील) तथा अपरिमित कामना (परिग्रह) इन पांचों पापों से विरति अणुव्रत है। अब हम उक्त पांचों अणुव्रतों पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। १. अहिंसाणुव्रत न केवल अणुव्रतों का अपितु समस्त जैन आचार का मूल अहिंसा है अहिंसा परमो धर्मः । श्रावकाचार के अन्तर्गत अहिंसा के सम्बन्ध में इतना ही लिखना अपेक्षित है कि गृहस्थ को स्थूल हिंसा श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना Jain Education International से विरत होना चाहिए। चूंकि श्रावक गृही जीवन-यापन करता है। अतः वह हिंसा से सर्वथा अलग नहीं हो सकता। इसलिए अहिंसाणुवत के परिपालन के लिए यह कहा गया है कि श्रावक स्थूल हिंसा कभी न करे, सूक्ष्म हिंसा भी उससे न हो, इसका भी उसे ध्यान रखना चाहिए। यतनाचार/विवेक पूर्वक अपने गार्हस्थ्य जीवन को बिताये । शास्त्र में अहिंसा अणुव्रत पालन करने के लिए कुछेक आशाएं दी गयी हैं। १. क्रोध आदि कषायों से मन को दूषित करके पशु तथा मनुष्य आदि का बन्धन नहीं करना चाहिए। २. डण्डे आदि से ताड़न-पीटन नहीं करना चाहिए। ३. ४. ५. पशुओं के नाक आदि अंगों का छेदन नहीं करना चाहिए। शक्ति से अधिक भार लादना नहीं चाहिए। खान-पान आदि जीवन-साधक वस्तुओं का निरोध नहीं करना चाहिये। उक्त कर्म हिंसा रूप है। अतः इनका त्याग अहिंसा - अणुव्रत का पालन है। सावयपण्णति में इसी का उल्लेख मिलता है बंध्यछविच्छेए, अइभारे भूत्तपाणबुच्छेए। को हा इदूसियमणो, गोमणयाईण नो कुज्जा । " तत्त्वार्थ सूत्र में भी उक्त पाचों अतिचारों का उल्लेख हुआ है। पाक्षिक अतिचार सूत्र में इस तथ्य का कुछ विस्तार से विवेचन हुआ है। आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत है कि पंगुपन, कोढ़ीपन और कुणित्व आदि हिंसा के फलों को देखकर विवेकवान् पुरुष निरपराध जस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करे अहिंसा धर्म का ज्ञाता और मुक्ति की अभिलाषा रखनेवाला श्रावक स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा न करे। पंगुकुष्ठिकुणित्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनांक, हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ॥ निरर्थिकां न कुर्वीत, जीवेषु स्थावरेष्वपि । हिंसामहिंसाधर्मज्ञः काक्षान्मोक्षमुपासकः ॥ ७ इन्हीं आचार्य के द्वारा हिंसा की निन्दा करते हुए कहा गया है। कि हिंसा से विरक्त व्यक्ति अपंग एवं रोगी होते हुए भी हिंसारत सर्वांग सम्पन्न व्यक्ति से श्रेष्ठ है। विघ्नों को शान्त करने के प्रयोजन से की हुई हिंसा भी विघ्नों को ही उत्पन्न करती है और कुल के आचार का पालन करने की बुद्धि से भी की हुई हिंसा कुल का विनाश कर देती है। यदि कोई मनुष्य हिंसा का परित्याग नहीं करता २० For Private & Personal Use Only चिन्ता आग समान है, करे बुद्धि बल नाश । जयन्तसेन चिन्तन कर, फैले आत्मप्रकाश ॥ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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