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________________ 330 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हिंसा के ये चारों रूप भी दो वर्गों में विभाजित किये गये हैं- 3. भूमि आदि के स्वामित्व के सम्बन्ध में असत्य जानकारी 1. हिंसा की जाती है और 2. हिंसा करनी पड़ती है। इसमें आक्रामक देना। में हिंसा की जाती है, जबकि सुरक्षात्मक, औद्योगिकी और आरम्भजा 4. किसी धरोहर को दबाने या अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध में हिंसा करनी पड़ती है। सुरक्षात्मक, औद्योगिक और आरम्भजा हिंसा करने हेतु असत्य बोलना। में हिंसा का निर्णय तो होता है, किन्तु वह निर्णय विवशता में लेना 5. झूठी साक्षी देना। होता है, अत: उसे स्वतन्त्र ऐच्छिक निर्णय नहीं कह सकते हैं। इन इस अणुव्रत के पांच अतिचार या दोष निम्न हैंस्थितियों में हिंसा की नहीं जाती, अपितु करनी पड़ती है। सुरक्षात्मक 1. अविचारपूर्वक बोलना या मिथ्या-दोषारोपण करना। हिंसा और औद्योगिक हिंसा में त्रस जीवों की हिंसा भी करनी पड़ 2. गोपनीयता भंग करना। सकती है, यद्यपि औद्योगिक हिंसा में भी त्रस जीवों की हिंसा केवल 3. स्वपत्नी या मित्र के गुप्त रहस्यों का प्रकट करना। सुरक्षात्मक दृष्टि से ही करनी पड़ती है। इसके अतिरिक्त हिंसा का 4. मिथ्या-उपदेश अर्थात् लोगों को बहकाना। एक रूप वह है, जिसमें हिंसा हो जाती है, जैसे-कृषिकार्य करते 5. कूट-लेखकरण अर्थात् झूठे दस्तावेज तैयार करना, नकली हुए सावधानी के बावजूद हो जाने वाली वस-हिंसा। जीवनरक्षण एवं मुद्रा (मोहर) लगाना या जाली हस्ताक्षर करना। आजीविकोपार्जन में होने वाली हिंसा से उसका व्रत दूषित नहीं माना उपर्युक्त सभी निषेधों की प्रासंगिकता आज भी निर्विवाद है। गया है। सामान्यतया यह कहा जाता है कि जैनधर्म में अहिंसा का वर्तमान युग में भी ये सभी दूषित प्रवृत्तियाँ प्रचलित हैं तथा शासन पालन जिस सूक्ष्मता के साथ किया जाता है, वह उसे अव्यावहारिक और समाज इन पर रोक लगाना चाहता है। बना देता है किन्तु यदि हम गृहस्थ उपासक के अहिंसा-अणुव्रत के 3. अस्तेयाणुव्रत-वस्तु के स्वामी की अनुमति के बिना किसी उपर्युक्त विवेचन को देखते हैं तो यह निस्संकोच कहा जा सकता है वस्तु का गहण करना चोरी है। गृहस्थ साधक को इस दूषित प्रवृत्ति कि अहिंसा की जैन अवधारणा किसी भी स्थिति में अप्रासंगिक और से बचने का निर्देश दिया गया है। इसकी विस्तृत चर्चा हम सप्त दुर्व्यसन अव्यावहारिक नहीं है। वह न तो व्यक्ति या राष्ट्र के आत्म-सुरक्षा के के संदर्भ में कर चुके हैं, अत: यहाँ केवल इसके निम्न अतिचारों प्रयत्न में बाधक है और न उसकी औद्योगिक प्रगति में। उसका विरोध की प्रासंगिकता की चर्चा करेंगेहै तो मात्र आक्रामक हिंसा से और आज कोई भी विवेकशील प्राणी 1. चोरी की वस्तु खरीदना। या राष्ट्र आक्रामक हिंसा का समर्थक नहीं हो सकता है। 2. चौर्यकर्म में सहयोग देना। गृहस्थ उपासक के अहिंसाणुव्रत के जो पांच अतिचार (दोष) 3. शासकीय नियमों का अतिक्रमण तथा कर अपवंचन। बताये गये हैं वे भी पूर्णतया व्यावहारिक और प्रासंगिक हैं। इन अतिचारों 4. माप-तौल की अप्रमाणिकता। की प्रासंगिक व्याख्या निम्न है 5. वस्तुओं में मिलावट करना। 1. बन्धन-प्राणियों को बंधन में डालना। आधुनिक सन्दर्भ उपर्युक्त पाँचों दुष्पवृत्तियाँ आज भी अनुचित एवं शासन द्वारा में अधीनस्थ कर्मचारियों को निश्चित समयावधि से अधिक रोककर दण्डनीय मानी जाती हैं। अत: इनका निषेध अप्रासंगिक या कार्य लेना अथवा किसी की स्वतन्त्रता का अपहरण करना भी इसी अव्यावहारिक नहीं है। वर्तमान युग में ये दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही कोटि में आता है। हैं, अत: इन नियमों का पालन अपेक्षित है। 2. वध-अंगोपांग का छेदन और घातक प्रहार करना। 4. स्वपत्नी-संतोष व्रत-गृहस्थोपासक की काम-प्रवृत्ति पर 3. वृत्तिच्छेद-किसी की आजीविका को छीनना या उसमें बाधा अंकुश लगाने के हेतु इस व्रत का विधान किया है। यह यौन सम्बन्धों डालना। को नियन्त्रित एवं परिष्कारित करता है और इस संदर्भ में सामाजिक 4. अतिभार-प्राणी की सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना या व्यवस्था को सुदृढ़ करता है। स्वपत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध कार्य लेना। रखना जैन श्रावक के लिये निषिद्ध है। पारिवारिक एवं सामाजिक शान्ति 5. भक्त-पान-निरोध-अधीनस्थ पशुओं एवं कर्मचारियों की एवं सुव्यवस्था की दृष्टि से इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यह समय पर एवं आवश्यक भोजन-पानी की व्यवस्था न करना। उपर्युक्त व्रत पति-पत्नी के मध्य एक-दूसरे के प्रति आस्था जागृत करता है अनैतिक आचरणों की प्रासंगिकता आज भी यथावत् है। शासन ने और उनके पारस्परिक प्रेम एवं समर्पणभाव को सुदृढ़ करता है। जब इनकी प्रासंगिकता के आधार पर इन्हें रोकने हेतु नियम बनाये हैं जबकि भी इस व्रत का भंग होता है, पारिवारिक जीवन में अशांति एवं दरार जैनाचार्यों ने दो हजार वर्ष पूर्व इन नियमों की व्यवस्था कर दी थी। पैदा हो जाती है। 2. सत्याणुव्रत-गृहस्थ को निम्न पाँच कारणों से असत्य-भाषण इस व्रत के निम्न पांच अतिचार या दोष माने गये हैंका निषेध किया गया है 1. अल्पवय की विवाहिता स्त्री से अथवा समय-विशेष के लिए 1. वर-कन्या के सम्बन्ध में असत्य जानकारी देना। ग्रहण की गई स्त्री से अर्थात् वेश्या आदि से सम्भोग करना। 2. पशु आदि के क्रय-विक्रय हेतु असत्य जानकारी देना। 2. अविवाहित स्त्री-जिसमें परस्त्री और वेश्या भी समाहित है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212054
Book TitleShravak Achar ki Prasangikta ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size2 MB
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