Book Title: Shravak Achar ki Prasangikta ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 1
________________ श्रावक-आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न गृहस्थ-वर्ग का उत्तरदायित्व यहाँ तक कह दिया गया है कि चाहे सभी सामान्य गृहस्थों की अपेक्षा जैन धर्म श्रमण-परम्परा का धर्म है। दूसरे शब्दों में वह निवृत्तिमार्गी श्रमणों को श्रेष्ठ मान लिया जाये किन्तु कुछ गृहस्थ ऐसे भी हैं, जो या संन्यासमार्गी धर्म है। यह बात भी निस्संकोच रूप से स्वीकार की श्रमणों की अपेक्षा संयम के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं। बात स्पष्ट जा सकती है कि वैदिक-परम्परा के विपरीत इसमें संन्यास को ही और साफ है कि आध्यात्मिक साधना का सम्बन्ध न केवल वेश से जीवन का चरम आदर्श स्वीकार किया गया है; किन्तु इस आधार है और न केवल आचार के बाह्य नियम से। यद्यपि समाज या पर यह निष्कर्ष निकाल लेना कि जैनधर्म में गृहस्थ या उपासक वर्ग संघ-व्यवस्था की दृष्टि में बाह्य आचार-नियमों का पालन आवश्यक का महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है, अनुचित ही होगा। चाहे जैनधर्म के प्रारम्भिक है। उत्तराध्ययनसूत्र (३६/४९) में स्पष्ट रूप से यह बात भी स्वीकार युग में संन्यास को अधिक महत्ता मिली हो, किन्तु आगे चलकर कर ली गयी है कि गृहस्थ जीवन से भी निर्वाण को प्राप्त किया जा जैन-परम्परा में गृहस्थ धर्म को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। सकता है। इस सम्बन्ध में मरुदेवी और भरत के उदाहरण लोकविश्रुत जैन धर्म में जो चतुर्विध सङ्घ व्यवस्था हुई उसमें साधु-साध्वियों के हैं। यदि गृहस्थ धर्म से श्री परिनिर्वाण या मुक्ति सम्भव है तो इस साथ ही साथ श्रावकों और श्राविकाओं को भी स्थान दिया गया। मात्र विवाद का कोई अधिक मूल्य नहीं रह जाता कि मुनि धर्म और गृहस्थ यही नहीं, श्रावक और श्राविकाओं को श्रमणों और श्रमणियों के धर्म में साधना का कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। वस्तुत: आध्यात्मिक विकास माता-पिता के रूप में स्वीकार किया गया। दूसरे शब्दों में उन्हें के क्षेत्र में श्रेष्ठता और निम्नता का आधार आध्यात्मिक जागरूकता, साधु-साध्वियों का संरक्षक मान लिया गया। वैदिक परम्परा में भी अप्रमत्तता और निराकुलता है, जिसने अपनी विषय-वासनाओं और गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों का मूल बताया गया था। प्रकारान्तर कषायों पर नियन्त्रण पा लिया है, जिसका चित्त निराकुल और शान्त से इसे जैन परम्परा में गृहस्थ वर्ग को श्रमण वर्ग का संरक्षक एवं हो गया है, जो अपने कर्तव्यपथ पर पूरी ईमानदारी से चल रहा है, आधार मानकर स्वीकार कर लिया गया। जैन परम्परा में गृहस्थ उपासक फिर चाहे वह गृहस्थ हो या मुनि, उसकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता में कोई न केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण था कि वह श्रमणों के भोजन, स्थान आदि अन्तर नहीं पड़ता। आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में न तो वेश महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति करता था अपितु उसे श्रमण साधकों के चारित्र है और न बाह्य आचार, अपितु उसमें महत्त्वपूर्ण है 'अन्तरात्मा की का प्रहरी भी मान लिया गया। कुछ समय पूर्व तक श्रावक वर्ग की निर्मलता और विशुद्धता'। अन्त:करण की निर्मलता ही साधना का यह महत्ता अक्षुण्ण थी। उसे यह अधिकार प्राप्त था कि यदि कोई मूलभूत आधार है। साधु या साध्वी श्रमण मर्यादाओं का सम्यकपेण पालन नहीं करता है तो वह उनका वेश लेकर उन्हें श्रमण संघ से पृथक् कर दे। इसी गृहस्थ धर्म की श्रेष्ठता का प्रश्न प्रकार मुनि एवं आर्यिका वर्ग में प्रवेश के लिए भी श्रावक संघ की गृहस्थधर्म और मुनिधर्म में यदि साधना की दृष्टि से हम श्रेष्ठता अनुमति आवश्यक थी। की बात करें तो भी वस्तुत: गृहस्थ जीवन ही अधिक श्रेष्ठ प्रतीत वर्तमान युग में साधु-साध्वियों के आचार में जो शिथिलता होती होगा। वीतरागता की साधना के लिए संन्यास एक निरापद मार्ग है, जा रही है, उसका एकमात्र कारण यही है कि गृहस्थवर्ग मुनि आचार क्योकि गृहस्थ जीवन में रहकर वीतरागता की साधना करना अधिक से अवगत न रहने के कारण अपने उपर्युक्त कर्तव्य को भूल गया कठिन है। क्योंकि साधक जीवन में विघ्नों से दूर रहकर निर्दोष चरित्र है। आज हमें इस बात को बहुत स्पष्ट रूप से समझ लेना होगा कि का पालन करना उतना कठिन नहीं है, जितना कि विघ्नों के बीच जैनधर्म और संस्कृति की रक्षा का दायित्व मुनिवर्ग की अपेक्षा गृहस्थ रहकर उसका पालन करना। संन्यास मार्ग एक ऐसा मार्ग है, जिसमें वर्ग पर ही अधिक है और यदि वह अपने इस दायित्व की उपेक्षा अनासक्ति या वीतरागता की साधना के लिए विघ्न-बाधाओं की सम्भावना करेगा, तो अपनी संस्कृति एवं धर्म की सुरक्षा करने में असफल रहेगा। कम होती है। संन्यासमार्ग की साधना कठोर होते हुए भी सुसाध्य यह तो हुआ केवल समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि से श्रावक है, जबकि गृहस्थ मार्ग की साधना व्यावहारिक दृष्टि से सुसाध्य प्रतीत वर्ग का महत्त्व एवं उत्तरदायित्व। किन्तु न केवल सामाजिक दृष्टि से होते हुए भी दुःसाध्य है, क्योंकि आध्यात्मिक विकास के लिए जिस अपितु आध्यात्मिक एवं साधनात्मक दृष्टि से भी गृहस्थ का स्थान उतना अनासक्त चेतना की आवश्यकता है, वह संन्यस्त जीवन में सहज प्राप्त निम्न नहीं है, जितना कि सामान्यतया मान लिया जाता है। सूत्रकृतांग हो जाती है, उसमें चित्त विचलन के अवसर अतिन्यून होते हैं, जब (२/२/३९) में स्पष्ट रूप से निर्देश है कि 'आरम्भ नो आरम्भ' कि गृहस्थ जीवन में चित्त-विचलन के अवसर अत्यधिक हैं। गिरि-कन्दरा (गृहस्थधर्म) का यह स्थान भी आर्य है तथा समस्त दुःखों का अन्त में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन उतना कठिन नहीं है, जितना कि नारियों करने वाला मोक्षमार्ग है। यह जीवन भी पूर्णतया सम्यक् एवं साधु (सुन्दरियों) के मध्य रहकर उनका पालन करना। प्रेमिका वेश्या के है। मात्र यही नहीं, उत्तराध्ययनसूत्र (५/२०) में तो स्पष्ट रूप से घर में चातुर्मास के लिए स्थित होकर ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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