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श्रावक आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न
३२३ स्थूलभद्र को उन सैकड़ों-हजारों मुनियों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ समझा जाने लगा है कि धर्म और संस्कृति का संरक्षण तथा आध्यात्मिक माना गया, जो गिरिकन्दराओं में रहकर मुनिधर्म की साधना कर रहे साधना सभी कुछ साधुओं का काम है। गृहस्थ तो मात्र उपासक है, थे। क्या विजय सेठ और सेठानी की ब्रह्मचर्य की कठोर साधना की उसके कर्तव्य की इतिश्री साधु-साध्वियों को दान देने तक ही है। आज तुलना किसी गृहस्थ जीवन का परित्याग करने वाले मुनि की हमें इस बात का अहसास करना होगा कि जैन धर्म की संघ-व्यवस्था ब्रह्मचर्य साधना से की जा सकती है? राग-द्वेष, आसक्ति और ममत्व में हमारा क्या और कितना गरिमामय स्थान है? खाट के चार पायों के प्रसंगों की उपस्थिति गृहस्थ जीवन में अधिक होती है। उन प्रसंगों में अगर एक चरमराता और टूटता है तो दूसरों का अस्तित्व निरापद में भी जो अपने को निराकुल और नियंत्रित रख सकता है, वह नहीं रह सकता। यदि श्रावक वर्ग अपने कर्तव्यों, दायित्वों एवं अपनी महान् है।
गरिमा को विस्मृत करता है तो संघ के शेष घटकों का अस्तित्व भी संन्यास मार्ग में तो इन प्रसंगों की उपस्थिति के अवसर ही अत्यल्प निरापद नहीं रह सकता। आज के साधुवर्ग और श्रावकवर्ग की स्थिति होते हैं। अत: संन्यास मार्ग निरापद और सरल है। गृहस्थ धर्म से को देखकर यह शेर बरबस याद आ जाता हैआध्यात्मिक विकास की ओर जाने वाला मार्ग फिसलन भरा है, जिसमें हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे। कदम-कदम पर सजगता की आवश्यकता है। यदि साधक एक क्षण आज वास्तविक स्थिति यह है कि हमारा श्रमण और के लिए भी वासना के आवेगों में नहीं संभला तो उसका पतन हो श्रमणी वर्ग भी शिथिलाचार में आकण्ठ डूबता जा रहा है। यदि कोई जाता है। वासनाओं के बवण्डर के मध्य रहते हुए भी उनसे अप्रभावित उसके अन्दर झांक कर देखता है तो उसके अन्दर रही हयी रहना सरल नहीं है। अत: कह सकते हैं कि गृहस्थ जीवन की साधना सड़ांध से अपना मुँह नफ़रत से फेर लेता है। आज जिन्हें हम आदर्श मुनि जीवन की साधना की अपेक्षा अधिक दुःसाध्य है और जो ऐसे और वन्दनीय मान रहे हैं, उनके जीवन में छल, छद्म, दुराग्रह एवं साधना-पथ पर चलकर आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करता है वह अहं के पोषण की प्रवृत्तियाँ और वासनामय जीवन के प्रति ललक मुनियों की अपेक्षा कई गुना श्रेष्ठ है।
को देखकर मन पीड़ा से भर उठता है, किन्तु उनके इस पतन का वस्तुत: गृहस्थ धर्म का पालन इसलिए अधिक दुःसाध्य है कि उत्तरदायी दूसरा कोई नहीं, श्रावक वर्ग ही है। या तो हमने उन्हें इस उसमें काजल की कोठरी में रहकर भी अपनी चरित्र रूपी चादर को पतन के मार्ग की ओर ढकेला है या फिर कम से कम उनके सहभागी बेदाग रखना होता है। काजल की कोठरी से बाहर रहकर तो कोई बने हैं। साधु-साध्वियों में शिथिलाचार हमारे प्रश्रय से बढ़ता है, यह भी चरित्र रूपी चादर को बेदाग रख सकता है, किन्तु कोठरी में रहते सत्य है कि आज श्रावक, उनमें भी विशेष रूप से सम्पन्न श्रावक-वर्ग हुए उसे बेदाग रख पाना अधिक सजगता और आत्मनियन्त्रण की अपेक्षा धर्म के नाम पर होने वाले बाह्याडम्बरों में अधिक रुचि ले रहा हैरखता है। फिसलन भरे रास्ते में चलकर जो साधना की ऊँचाइयों उनकी और उनके तथाकथित गुरुओं दोनों की रुचि धर्म के नाम पर तक पहुँचता है, उसकी महत्ता तो कुछ और है। संसाररूपी और अपने-अपने अहं का पोषण करने की है। वही साधु और वही श्रावक वासनारूपी कर्दम में रहकर भी कमलपत्र के समान अलिप्त रहना निश्चय अधिक प्रतिष्ठित होता है, जो जितनी भीड़ इकट्ठी करता है। जो मजमा ही एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
जमाने में जितना अधिक कुशल है, वही उतना अधिक प्रतिष्ठित है। यद्यपि मेरे यह सब कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं मुनि इन सब में साधना-प्रिय साधु और श्रावक तो कहीं ओझल हो गये जीवन की महत्ता और गरिमा को नकार रहा हूँ, इस विषय-वासनारूपी हैं। मैं यह सब जो कुछ कह रहा हूँ उसका कारण मुनिवर्ग के प्रति काजल की कोठरी से निकलकर उन पर नियन्त्रण कर लेना भी कम मेरी दुर्भावना नहीं है, अपितु उस यथार्थता को देखकर मन में जो महत्त्वूपर्ण नहीं है। मुनि जीवन की अपनी साधनागत गरिमा और महत्ता एक पीड़ा और व्यथा है, उसी का प्रकटन है। बाल्यकाल से लेकर है, उसे मैं अस्वीकार नहीं करता। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि जीवन की इस प्रौढ़ावस्था तक मैंने जैन मुनि संघ को अति निकट जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी साधना की उन्हीं आध्यात्मिक ऊँचाइयों से देखा और परखा है एवं उस निकटता में मैंने जो कुछ अनुभव को छू लेता है, जिसे एक मुनि छूता है तो वह गृहस्थ मुनि से श्रेष्ठ किया है, उसी यथार्थता की बात कह रहा हूँ। हो सकता है कि इसके है। उत्तराध्ययन में गृहस्थ को मुनि की अपेक्षा जो श्रेष्ठ कहा गया कुछ अपवाद हों, लेकिन सामान्य स्थिति यही है। जीवन का दोहरापन है, वह इसी अपेक्षा से कहा गया है।
आज मुनिवर्ग का यथार्थ बनता जा रहा है, लेकिन इस सबके लिए
मैं अपने को और अपने साथ ही गृहस्थ वर्ग को अधिक उत्तरदायी अपनी अस्मिता को पहचाने
मानता हूँ। गृहस्थ धर्म की इस महत्ता के प्रतिपादन का एकमात्र उद्देश्य यही आज गृहस्थ वर्ग न केवल अपने संरक्षक होने के दायित्व को है कि हम अपने पद की महत्ता और गरिमा को समझें। वर्तमान संदर्भो भूला है, अपितु वह स्वयं अपनी अस्मिता को खोकर चारित्रिक पतन में इस महत्ता और गरिमा का प्रतिपादन इसलिए आवश्यक है कि की ओर तेजी से गिरता जा रहा है। जब हम ही नहीं संभलेंगे तो आज का श्रावक वर्ग न केवल अपने कर्तव्यों और दायित्वों को भूल दूसरों को संभालने की बात क्या करेंगे। आज का गृहस्थ वर्ग जिस बैठा है, अपितु वह अपनी अस्मिता को भी खो बैठा है। आज ऐसा पर जैन धर्म और संस्कृति के संरक्षण का दायित्व है, उसका ज्ञान
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