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श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में
जैन तत्त्व - चिन्तन
जैन धर्म संसार के प्राचीन धर्मों में से एक है । देवेन्द्रमुनि' के अनुसार जैनाचार्य जैन धर्म को एक ऐसा उदार एवं लोकप्रिय धर्म बनाना चाहते थे, जिससे ब्राह्मण संस्कृति के अनुयायी भी आकर्षित हो पायें तथा जैन समाज मौलिक तत्वों में भी किसी प्रकार का विरोध न आए। यदि जैनेतर आचार्यों के द्वारा किसी प्रकार का विरोध आता था तो उसका जैनाचार्य शास्त्रार्थ के द्वारा परिहार करते थे । आलोच्य अभिलेखों में इस प्रकार के एकाधिक वर्णन प्राप्त होते हैं। "
धर्म का स्वरूप – पउमचरियं में जीवों की दया और कषायों के निग्रह को धर्म कहा गया है। स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकना निग्रह है । आलोच्य अभिलेखों में इस प्रकार के निग्रह की स्थान-स्थान पर चर्चा आई है। मोह और क्षोभ से रहित आत्मा के शुद्ध परिणाम को भावप्राभृत' में धर्म माना गया है । अभिप्राय यह है कि मोक्ष को जैन परम्परा में धर्म माना गया है। आलोच्य अभिलेखों में मोक्ष का मुक्ति, कैवल्य, प्रमोक्ष इत्यादि शब्दों में उल्लेख किया गया है।
आत्मा - दर्शन, ज्ञान, चारित्र को जो सदा प्राप्त हो वह आत्मा है । आलोच्य अभिलेखों में द्वादशात्मा का उल्लेख हुआ है । सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र को मोक्ष का मार्ग माना गया है। इस रत्नत्रय के अभ्यास करने की विद्या या मत को स्याद्वाद या अनेकान्तवाद कहा जाता है । आलोच्य अभिलेखों में स्याद्वाद और रत्नत्रय की विविध स्थानों पर चर्चा हुई है ।
नयवाद - सधर्मा दृष्टान्त के साथ ही साधर्म्य होने से जो बिना किसी प्रकार के विरोध के स्याद्वाद रूप परमागम में विभक्त अर्थ ( साध्य ) विशेष का व्यंजक ( गमक) होता है, उसे नय कहते हैं । " आलोच्य अभिलेखों में नय का उल्लेख आया है" और इसके नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूड़ और एवम्भूत आदि सात भेद बतलाते हैं।
नैगम-- सामान्य विशेष के संयुक्त रूप का निरूपण नैगम नय है । संग्रह — केवल सामान्य का निरूपण संग्रह नय है ।
व्यवहार -- केवल विशेष का निरूपण व्यवहार नय है ।
ऋजुसूत्र -- क्षणवर्ती विशेष का निरूपण ऋजुसूत्र नय है ।
शब्द - रूढ़ि से होने वाली शब्द की प्रवृत्ति का अभिप्राय शब्द नय है ।
१. साहित्य और संस्कृति, वाराणसी, १९७०, पृ० ५७
२. जैन शिलालेखसंग्रह, भाग १, ले० सं० ४६२, ३९ / २, ५०
३. पउमचरियं, २६ / ३४
४. ज० शि० सं०, भाग १, ले० सं० ५४ / २७
५. भावप्राभृत, ८१
६. जं०शि० सं०, भाग १, ले० सं० १०८ / ५८, १०५ / ७, १०५/५
श्री जगबीर कौशिक
७. वही, ले० सं० १०८ / ३६
८. वही, ५४ / ५४, ८२/१
६. वही, ५४ /७१८२/४
१०. आप्तमीमांसा, १०६
११. जं०शि० सं०, भाग १, ले० सं० ५४ / ३
१२. वही, ११३
जैन दर्शन मीमांसा
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